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१६. सम्यक् धर्म
सम्यक् माने ठीक, सही, यथार्थ, सत्य । अतः सम्यक् धर्म माने सत्य धर्म, सत् धर्म, सद्धर्म । ऐसा धर्म जिसमें मिथ्यात्व को कहीं स्थान नहीं, जिसका कल्पना से कोई वास्ता नहीं । यदि कोई उपदेशक किसी मिथ्या बात को, मिथ्या ही क्यों सही बात को भी अंधश्रद्धा से महज कल्पना के स्तर पर मान लेने का आग्रह करे तो समझो वह सम्यक् नहीं, मिथ्या धर्म का उपदेश कर रहा।
सम्यक् माने शुद्ध, स्वच्छ, निर्मल निर्दोष, निष्कलुष । अतः सम्यक् धर्म माने शुद्ध धर्म, ऐसा जिसमें पाप के लिए किंचित भी स्थान नहीं । जिसका जोर जबरदस्ती से कोई वास्ता नहीं। धर्म निर्मल होता है तो सहज स्वीकार्य होता है, क्योंकि न्याय संगत होता है, युक्तिसंगत होता है। कोई उपदेशक कहे कि मेरी बात ननु-नच किए बिना, तर्क-वितर्क किए बिना, अक्ल की दखल दिए बिना आंख मूंदकर इसलिए मान लो कि न मानने पर कोई अदृश्य सत्ता तुम्हें असह्य नारकीय यंत्रणा का दंड देगी और मान लेने पर प्रसन्न होकर तुम्हारे सारे पाप भुला देगी और स्वर्गीय सुख का वरदान देगी तो समझो वह सम्यक् नहीं, मिथ्या धर्म की छलना है ।
सम्यक् माने अक्षत, अखंड, अविकल, पूर्ण । सम्यक् धर्म माने परिपूर्ण परिपक्व धर्म। धर्म की परिपूर्णता, परिपक्वता उसे पूरी तरह धारण कर लेने में है। महज पठन-पाठन, चर्चा-परिचर्चा धर्म की अविकल्प परिपूर्णता नहीं है। बुद्धि-क्रीड़ा और बुद्धि-रंजन धर्म की पूर्ण परिपक्वता नहीं है। पढ़े-सुने धर्म का चिंतन-मनन करके उसे सम्यक् रूपेण धारण कर लेना, जीवन का अंग बना लेना, सहज स्वभाव बना लेना ही उसकी परिपूर्णता है, परिपक्वता है । यही