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१५. धर्म चक्र
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हमारे भीतर जो प्रतिक्षण लोकचक्र चल रहा है, इससे छुटकारा पाने के लिए धर्मचक्र प्रवर्तित करना होगा । लोकचक्र हमारे समस्त दुःखों का मूल है । धर्मचक्र सभी दुःखों का निरोधक है ।
लोकचक्र क्या है ? लोकचक्र मोह, मूढ़ता है । लोकचक्र अज्ञान, अविवेक, अविद्या है जिसके कारण हम निरंतर राग और द्वेष की चक्की में पिसते रहते हैं । हमारी छह इन्द्रियाँ - आँख, नाक, कान, जिह्वा, शरीर की त्वचा और मन तथा इन इन्द्रियों के छह विषय - रूप, गंध, शब्द, रस, स्पर्शव्य और कल्पनाएँ; इनका परस्पर संस्पर्श होता रहता है। नाक का गंध से, कान का शब्द से, जिह्वा का रस से, काया का किसी भी स्पर्शव्य पदार्थ से, मन का कल्पना से । संस्पर्श होते ही तत्क्षण हमारे चित्त में कोई संवेदना जागती है । यदि वह संवेदना हमें प्रिय लगी तो हम तत्सम्बन्धी विषय से चिपकाव याने राग पैदा कर लेते हैं । यदि अप्रिय लगी तो दुराव याने द्वेष पैदा कर लेते हैं । चाहे राग उत्पन्न हो अथवा द्वेष, दोनों ही हमारे मन में तनाव-खिंचाव और उत्तेजना पैदा करते हैं । इससे समता नष्ट होती है । विषमता आरम्भ होती है। दुक्ख संधि होती है। दुक्ख आरम्भ होता है यही लोकचक्र का आरम्भ हो जाना है ।
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नासमझी से हम जो उत्तेजना पैदा कर लेते हैं वह गहरी आसक्तियों में परिवर्तित होकर दूषित भव-चक्र के रूप में बढ़ती है और हमें व्याकुल, व्यथित बनाती और हमारा दुख संसार बढ़ाती है । इसी भवचक्र को काटने के लिए हमारे भीतर धर्मचक्र जागते रहना बहुत आवश्यक है । यदि