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विपश्यना क्या है ?
होने का स्वप्न ले सकें। विपश्यना कोई प्रपत्ति नहीं जिसके द्वारा किसी दृष्यअदृष्य व्यक्ति के प्रति प्रपन्न होकर हम निश्चित्त हो सकें, अकर्मण्य बन सकें। विपश्यना किसी काल्पनिक तारक देव-ब्रह्म अथवा किसी दम्भी धर्माचार्य का मिथ्या आश्वासन नहीं जो हमारे लिए डूबते को तिनके का सहारा बन सके ।
तो फिर विपश्यना क्या है ?
विपश्यना सत्य की उपासना है। सत्य में जीने का अभ्यास है। सत्य याने यथार्थ । यथार्थ इसी क्षण का होता है। भूतकाल की यादें होती हैं। भविष्यकाल की कामनाएं-कल्पनाएं । वास्तविकता इसी क्षण की होती है। अतः विपश्यना इसी क्षण में जीने का अभ्यास है। यह क्षण जिसमें भूत की कोई जल्पना अथवा भविष्य की कोई कल्पना नहीं। यादों की आकुल आहे अथवा स्वप्नों की व्याकुल चाहें नहीं। आवरण, माया, विपर्यास, भ्रम-भ्रांतिविहीन इस क्षण का जो सत्य है, जैसा भी है उसे ठीक वैसा ही, उसके सही स्वभाव में देखना-समझना यही विपश्यना है। विपश्यना सम्यक् दर्शन है। विपश्यना सम्यक् ज्ञान है। ____ जो जैसा है, उसे ठीक वैसा ही देख-समझ कर जो आचरण होगा, वही सही, कल्याणकारी सम्यक् आचरण होगा । विपश्यना सम्यक् आचरण है।
विपश्यना पलायन नहीं है, जीवन-विमुखता नहीं है। प्रत्युत जीवन-अभिमुख होकर जीने की शैली है। विपश्यना खुली हवा में ठोस धरती पर कदम रखकर चलने की कला है । विपश्यना बुद्धि-किलोल नहीं, प्रत्युत शुद्ध धर्म-शील को जीवन में उतारने की विधि है। विपश्यना आत्म और सर्व मंगलमयी आचार संहिता है। स्वयं सुख से जीने तथा औरों को सुख से जीने देने की कल्याणकारिणी जीवन पद्धति है। विपश्यना आत्म-मंगल है, सर्व-मंगल है। विपश्यना आत्मोदय है, सर्वोदय है ।
विपश्यना आत्म-निर्भरता है। बिना बैसाखियों के स्वयं अपने पांव पर खड़े होने की मंगल विधा है । स्वावलंबन की सर्वोत्कृष्ट साधना है । विपश्यना आत्म-दर्शन, आत्म-निरीक्षण, आत्म-परीक्षण है । अपने अन्दर का कितना मैल उतरा ? कितना बाकी है ? कितनी निर्मलता आयी ? कितनी बाकी है ? कितने दुर्गुण दूर हुए ? कितने बाकी हैं ? कितने सद्गुण आए ? कितने बाकी हैं ? स्वयं अपना लेखा-जोखा रखते रहने की जागरूकता, विपश्यना है। स्वयं