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धर्म : जीवन जीने की कला
मंगलमयी विधि का नाम विपश्यना साधना है। साधक इस क्षण जो कुछ अनुभूत हो रहा है उसी के प्रति जागरूक रहने का अभ्यास करता है । अपनी काया के प्रति जागरूक रहते हुए कायानुपश्यना करता है । काया के भिन्नभिन्न अंगों में अनुभूत होने वाली समस्त सुखद व दुखद अथवा असुखद-अदुखद संवेदनाओं के प्रति जागरूक रहते हुए वेदनानुपश्यना करता है। अपने चित्त के प्रति जागरूक रहकर चित्तानुपश्यना करता है। चित्त में उठने वाली विभिन्न अच्छी-बुरी वृत्तियों के प्रति, उनके गुण, धर्म, स्वभाव के प्रति जागरूक रहता हुआ और अंततः काया, संवेदना, चित्त और चित्त वृत्तियों की परिसीमाओं से परे निर्वाण धर्म का साक्षात्कार करता हुआ धर्मानुपश्यना करता है । जागरूकता का यह अभ्यास उसके चित्त पर पड़े हुए सभी बुरे विकारों और संस्कारों का उच्छेदन करता है । चित्त धीरे-धीरे आसक्तियों, आस्रवों, व्यसनों, तृष्णाओं और तीव्र लालसाओं के बंधन से, अतीत की सुखद-दुखद यादों की निरर्थक उलझनों से, भावी आशंकाओं के भय-भीतिजन्य मानसिक उत्पीड़न से, भविष्य के सुनहरे स्वप्नों की काल्पनिक उधेड़बुन से विमुक्त होता हुआ, अपनी स्वाभाविक नैसर्गिक स्वच्छता को प्राप्त होता है। __समस्त ऐंठन-अकड़नभरी ग्रन्थियों और खिंचाव-तनावभरी मानसिक पीड़ाओं को दूर करने का यह एक सहज-सरल तरीका है, जो मानवमात्र के लिए समान रूप से कल्याणकारी है। इसका अभ्यास करने के लिए यह अनिवार्य नहीं कि कोई अपने आपको बौद्ध सम्प्रदाय में दीक्षित करे । यह भी अनिवार्य नहीं कि इस बिधि के प्रवर्तक भगवान बुद्ध की मूर्ति को नमन करे । उसे धूप, दीप, नैवेद्य, आरती से पूजित करे। यह भी नहीं कि साधक उस आदि गुरु के रूप या आकार का ध्यान करे अथवा उसके नाम या मंत्र का जप करे। यह भी नहीं कि उसकी शरण ग्रहण करने के नाम पर ऐसा अंध आत्म-समर्पण कर दे कि बिना स्वयं कुछ किये, केवल उसकी कृपा से ही तर जाने की मिथ्या भ्रांति सिर पर चढ़ जाय । इस विधि से स्वयं लाभान्वित होने के बाद अथवा अन्य लोगों को लाभान्वित होते देखकर यदि कोई साधक उस महाकारुणिक, महाप्रज्ञावान भगवान तथागत के प्रति कृतज्ञताविभोर होकर उनकी करुणा और प्रज्ञा के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट करे तो कोई दोष नहीं। गुणों के प्रति प्रकट की हुई श्रद्धा उन गुणों को अपने जीवन में धारण करने की प्रेरणा प्रदान करती है। अतः कल्याणकारिणी होती है।