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धर्म का सर्वहितकारी स्वरूप
.४६ दूर होता है। ज्ञान, विवेक, बोधि के अंतर्चक्षु विरज-विमल बन जाते हैं । अन्तर्दृष्टि पारदर्शी बन जाती है । उसके सामने से सारा कुहरा, सारी धुंध दूर हो जाती है । यह जो हमने सुनी-सुनाई और पढ़ी-पढ़ाई बातों से अपने मन को विकृत कर लिया है, यही पूर्वाग्रह रूपी विकृतियां सत्य दर्शन में बाधा पैदा करती हैं। पूर्व निश्चित धारणाएं और मान्यताएं हमारी आँखों पर रंगीन चश्मों की तरह चढ़ी रहती हैं और हमें वास्तविक सत्य को अपने ही रंग में देखने के लिए बाध्य करती हैं। धर्म के नाम पर हमने इन बेड़ियों को सुन्दर आभूषणों की तरह पहन रखा है। सच्ची मुक्ति के लिए इन बेड़ियों का टूटना नितान्त आवश्यक है । __चित्त को राग, द्वेष, मोह, ईर्ष्या, मात्सर्य, दुर्भावना, दौर्मनस्य, भय, आशंका, मिथ्या काल्पनिक दृष्टियों, मान्यताओं और रूढ़ियों की जकड़ से मुक्त करने के लिए आवश्यक है कि सारी रूढ़ परम्पराओं को एक ओर . रखकर, भावुकता को दूर हटाकर, हम यथार्थ में जीना सीखें । यथार्थ में जीना वर्तमान में जीना है, इस क्षण में जीना है । क्योंकि बीता हुआ क्षण यथार्थ नहीं, वह तो समाप्त हो चुका । अब तो केवल उसकी याद रह सकती है, वह क्षण नहीं । इसी तरह आने वाला क्षण अभी उपस्थित नहीं है, उसकी केवल कल्पना और कामना हो सकती है ; यथार्थ दर्शन नहीं। वर्तमान में जीने का अर्थ है, इस क्षण में जो कुछ अनुभूत हो रहा है, उसी के प्रति जागरूक होकर जीना । भूतकाल की सुखद या दुखद स्मृतियाँ अथवा भविष्यकाल की सुखद या दुखद आशाएं आशंकाएं हमें वर्तमान से दूर ले जाती हैं और इस प्रकार सच्चे जीवन से विमुख रखती हैं। वर्तमान से विमुख ऐसा थोथा निस्सार जीवन ही हमारे लिए विभिन्न क्लेशों का कारण बनता है। अशान्ति, असंतोष, अतृप्ति, आकुलता, व्यथा और पीड़ा को जन्म देता है। जैसे ही हम 'इस क्षण' का यथाभूत दर्शन करते हुए जीने लगते हैं, वैसे ही क्लेशों से स्वाभाविक मुक्ति मिलने लगती है।
इस देश के एक महापुरुष भगवान तथागत गौतमबुद्ध को यही सम्यक् सम्बोधि प्राप्त हुई । इस क्षण में जीना सीखकर चित्त को संस्कारों से विहीन कर, परम परिशुद्ध कर, बंधनमुक्त हो सकने की कला हासिल हुई। उन्होंने जीवन भर लोगों को इसी कल्याणकारिणी कला का अभ्यास कराया। इसी