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जो चाहे अपना कुशल, जो चाहे निर्वाण । सरल, सरल अति सरल बन, छोड़ कपट अभिमान ।।
जब तक मन में कुटिलता, मुक्त हुआ ना कोय । जिसने त्यागी कुटिलता, सहज मुक्त है सोय ॥
अपने मन की कुटिलता, अपना ही दुख भार। अपने मन की सरलता, अपना ही सुख सार ।।
कपट रहे ना कुटिलता, रहे न मिथ्याचार । शुद्ध धर्म ऐसा जगे, होय स्वच्छ व्यवहार ।।
सहज सरल मृदु नीर सा, मन निर्मल हो जाय। त्यागे कूलिस कठोरता, गांठ न बंधने पाय ।।
बाहर भीतर एक रस, सरल स्वच्छ व्यवहार । कथनी करनी एक सी, यही धर्म का सार ॥