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धर्म का सार
चिह्न, पादपीठ या धातु-अवशेष अथवा उसके उपदेश-ग्रन्थ के सामने वन्दना करने, सिर झुकाने, दीप जलाने, नैवेद्य चढ़ाने, आरती उतारने, शंख बजाने, घण्टे घडियाल बजाने, नाचने, गाने, अजान पढ़ने, स्तोत्र पढ़ने, उसके नाम की माला जपने अथवा उसकी वाणी के पाठ करने को ही धर्म मानने लगे हैं। भले यह सब यन्त्रवत् ही क्यों न होता हो। इसी प्रकार भयभीत चित्त द्वारा किसी की मनौती मनाने, प्रसाद चढ़ाने, जात- झडुला, जादू-टोना, अथवा झाड़-फूँक करने को ही धर्म मानने लगे हैं । किसी अज्ञात अदृश्य सत्ता को सन्तुष्ट प्रसन्न करने के लिए मुर्गी, बकरे, गाय, भैंसे या मनुष्य तक की बलि चढ़ाते हैं और इसे भी धर्म ही मानते हैं । कोई बलि चढ़ाते हुए एक झटके में धड़ से सिर अलग करने को और कोई धीरे-धीरे तड़पा-तड़पाकर मारने को धर्म मानते हैं । इन भिन्नभिन्न कर्मकाण्डों वाला धर्म बाजार में भी बिकने लगा है। हम चाहें तो पैसे के बल पर ऐसे धर्म को खरीद सकते हैं । जो कर्मकाण्ड स्वयं नहीं कर सकते, उसे किराये के लोगों से करवा सकते हैं । यह सत्य धर्म का घोर अवमूल्यन है !
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सत्य धर्म की उपलब्धि के लिए हमें जो साधन मिले, हमारी नासमझी के कारण वे ही हमारे लिए बन्धन बन गये । किसी सन्त पुरुष ने हमें अन्धकार में भटकते देख अत्यन्त करुण चित्त से हमारे हाथ में जलती हुई मशाल पकड़ाई ताकि उस प्रकाश के सहारे हम सही रास्ते चलकर अपनी जीवन-यात्रा सकुशल पूरी करें । परन्तु कालान्तर में उस मशाल की ज्योति बुझ गई । हमारे हाथ में केवल डण्डा रह गया और हम मूढ़तावश उस डण्डे को ही मशाल मानकर उससे चिपक गये । शिव छूट गया, शव रह गया । थोथा बाह्याचार ही हमारे लिए धर्म बन गया । ऐसी दयनीय स्थिति में आकंठ डूबा होने के कारण ही कोई प्रवासी भारतीय कहता है, 'मुझें बर्मा आए चालीस वर्ष बीत गए । यहाँ आकर मैंने चोरियाँ कीं, छल-कपट किया, व्यभिचार किया, नशा - पता किया; लेकिन अपना धर्म नहीं छोड़ा ।' "कैसे धर्म नहीं छोड़ा ?" पूछने पर बड़ े सहज भाव से जवाब देता है, "इन चालीस वर्षों में मैंने कभी किसी बर्मी के हाथ का हुआ पानी तक नहीं पिया ।" कैसी दयनीय दशा बना ली है हमने बेचारे धर्म की !
कभी यह भी होता है कि इन बाह्याचार और बाह्याडम्वर रूपी स्थूल छिलकों को तो हम धर्म नहीं मानते हैं, परन्तु इनकी जगह ऐसे सूक्ष्म-सूक्ष्म छिलकों को