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धर्म क्या है ?
वायु का सेवन करता है, अपने शरीर और वस्त्रों को गन्दा रखता है, अस्वच्छदूषित भोजन करता है तो अपने स्वास्थ्य को हानि पहुंचाता है, रोगी और दुःखी होता है । यह नियम सार्वजनीन है। किसी एक व्यक्ति-विशेष, किसी एक जाति-विशेष पर ही लागू नहीं होता। ठीक इसी प्रकार जब कोई अपने मन को विकारों से विकृत करता है तो व्याकुल होता है। उसके वात-पित्तकफ में विषमता पैदा होती है। वह रोग-ग्रस्त होता है। स्वास्थ्य-विज्ञान के सामान्य नियम सभी के तन और मन पर समान रूप से लागू होते हैं। प्रकृति यह नहीं देखती कि इन नियमों का उल्लंघन करने वाला कौन है, किस जाति
और किस सम्प्रदाय का है । प्रकृति किसी सम्प्रदाय-विशेष के व्यक्ति पर कृपा नहीं करती, न किसी अन्य पर कोप करती है। मलेरिया मलेरिया है। न हिन्दू है,न बौद्ध, न जैन है न पारसी, न मुस्लिम है न ईसाई । वैसे ही कुनैन कुनैन है । वह न हिन्दू है न बौद्ध, न जैन है न पारसी, न मुस्लिम है न ईसाई । इसी प्रकार क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष आदि विकार न हिन्दू हैं न बौद्ध, न जैन हैं न पारसी, न मुस्लिम है न ईसाई । वैसे ही इनसे विमुक्त रहना भी न हिन्दू है न बौद्ध, न जैन है न पारसी, न मुस्लिम है न ईसाई । विकारों से विमुक्त रहना ही शुद्ध धर्म है। अत: शुद्ध धर्म न हिन्दू है, न बौद्ध है, न जैन है, न पारसी है, न मुस्लिम है, न ईसाई है । वह शुद्ध धर्म ही है।
धर्म एक आदर्श जीवन-शैली है, सुख से रहने की पावन पद्धति है, शान्ति प्राप्त करने की विमल विधा है, सर्व जन-कल्याणी आचारसंहिता है, जो सबके लिए है।
क्या शीलवान, समाधिवान, प्रज्ञावान होना केवल वौद्धों का ही धर्म है ? औरों का नहीं ? क्या वीतराग, वीतद्वेष, वीतमोह होना केवल जैनियों का ही धर्म है ? औरों का नहीं ? क्या स्थितप्रज्ञ, अनासक्त, जीवनमुक्त होना केवल हिन्दुओं का ही धर्म है ? औरों का नहीं ? क्या प्रेम और करुणा से ओत-प्रोत होकर जन-सेवा करना केवल ईसाइयों का ही धर्म है ? औरों का नहीं ? क्या जात-पांत के भेदभाव से मुक्त रहकर सामाजिक समता का जीवन जीना केवल मुसलमानों का ही धर्म है ? औरों का नहीं ? धर्मपालन का मुख्य उद्देश्य है हम आदमी बनें । अच्छे आदमी बनें। अच्छे आदमी बन जायेंगे तो अच्छे हिन्दू,