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न
पाप होय झट रोक ले, करे धर्मवान जाग्रत रहे, अपनी
बारम्बार । भूल सुधार ॥
देखें देखत
मन की गंदगी, देखें मन के दोष ।
देखत देखते, होए मन निर्दोष ॥
मन में उठे विकार जब, अभिमुख होकर देख । अनासक्त हो देखते, रहे न दुख की रेख ॥
जब जब उठे विकार मन, सांस विषम हो जाय । हलचल होय शरीर में, देख देख मिट जाय ॥
व्याकुल ही होता रहा, देख पराए दोष । लगा देखने दोष निज, तब से आया होश ॥
प्यासा निर्धन
पाए धर्म रस, अमृत की सी चूंट। पाए धर्म धन, जाय दुखों से छूट ।