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पुस्तक की छपाई की कहानी करुण है । हम लजित है कि पुस्तक उचित समय पर पाठकों के हाथों में नहीं दी जा सकी । एक प्रेस, दूसरे प्रेस और तीसरे प्रेस इस तरह पुस्तक घूमती ही रही । हम राष्ट्रभाषा प्रेस के व्यवस्थापक के आभारी है कि पुस्तक उन्होंने छापकर दी ।
श्रद्धेय मशरूवालानी के हम विशेष कृतज्ञ है कि उन्होंने पुस्तक के प्रकाशन की अनुमति प्रदान की और स्वास्थ्य ठीक न होते हुए भी तथा अत्यन्त कार्य व्यस्त होते हुए भी अनुवाद आदि को देखने का कष्ट उठाया । उनका भाशीर्वाद इसी तरह हमेशा मिलता रहे, यही हमारी अभिलाषा है ।
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पुस्तक भारत जैन महामंडल के अन्तर्गत 'स्व० राजेन्द्र स्मृति ग्रंथमाला' की ओर से प्रकाशित की जा रही है। यह ग्रंथ माला पू० रिषभदास जी रांका के एक पुत्र राजेन्द्रकुमार की स्मृति में चल रहीं है । यह पुस्तक उसका तीसरा और चौथा पुष्प है । पुस्तक का प्रकाशन इसी दृष्टिकोण से किया गया है कि एक राष्ट्रीय विचारक व्यक्ति के हृदय में धार्मिक महापुरुषों पैः प्रति जो विचार है उनसे हिन्दी पाठक परिचित हो सकें । हम नहीं यानते पुस्तक में प्रतिपादित विचारों का परंपरा और रूढ़ि-प्रिय समाज में कितना स्वागत होगा । हम इसना हो अनुरोध कर सकते हैं कि पुस्तक का अवलोक्न उद्भावनापूर्वक किया जाय ।