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प्रकाशक का आभार मानना दूसरे शब्दों में अपने मह से अपनी ही प्रशंसा करने-जैसा है। हां, उनका कृतज्ञ अवश्य जिनसे जिस पुस्तक के पढ़ने, अनुवाद करने, छपाने आदि के बहाने अपने विकास के मार्ग में मुझे प्रेरणा और सहायता मिली है।
जैन जगत' कार्यालय. वर्धा । शुन पचमी, वीर सं० २४७६
२२ : ५:५०
__-जमनालाल जैन