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महावीर का महात्म्य मानकर अथवा भूलभरी वैराग्य भावना से प्रेरित होकर कुटुम्बियों के प्रति निष्ठुर बनते जाते हैं। यावज्जीवन सेवा , करते करते प्राण छूट जाये तब भी माता-पिता और गुरु-जनों के ऋण से कोई मुक्त नहीं हो सकता-ऐसे पूजनीय और पवित्र सम्बन्ध को पाप-रूप, बन्धनकारक अथवा स्वार्थ-पूर्ण मानना बड़ी से बड़ी भूल है । इस भूल ने हिन्दुस्तान के आध्यात्मिक मार्ग को भी चैतन्य-पूर्ण करने के बदले जड़ बना दिया है। महत्ता को प्राप्त किसी सन्त ने कभी ऐसी भूल यदि की हो, तो उसे भी इसमें से अलग होना पड़ा है-अपनी भूल सुधारनी पड़ी है। नैसर्गिक पूज्य भावना, वात्सल्य भावना, मित्रभावना आदि को स्वाभाविक सम्बन्धों में वताना, भूल से अशक्य हो जाने के कारण उन्हे कृत्रिम रीति से विकसित करना पड़ा है। इसीलिए किसी को देवी में, पाण्डुरंग मे, बाल कृष्ण मे, कन्हैया में, द्वारिकाधीश में, या दत्तात्रेय में मातृ-भाव, पुत्र-भाव, पति-भाव, मित्र-भाव या गुरु-भाव आरोपित करना पड़ा अथवा शिष्य पर पुत्र-भाव वढ़ाना पड़ा है; परन्तु इन भावनाओ के विकास के विना तो किसी की उन्नति हुई नहीं है।
वैराग्य प्रेम का अभाव नहीं है, किन्तु, प्रेम-पात्र लोगों में से सुख की इच्छा का नाश है । उन्हे स्वार्थी समझकर उनका त्याग करने का भाव नही, किन्तु उनके सम्बन्ध के अपने स्वार्थों का त्याग और उन्हें सच्चा सुख पहुंचाने स्वयं की सम्पूर्ण शक्ति का व्यय है। । प्राणियों के सम्बन्ध में वैराग्य भावना का यह लक्षण है।