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टिप्पणियाँ . . १. मातृ-भक्तिः
ज्ञान और साधुता में श्रेष्ठ जगन के महापुरुषो के जीवनचरित्र देखने से उनके अपने माता-पिता और गुरुजनो के प्रति असीम प्रेम की ओर हमारा ध्यान आकर्पित होता है। ऐसा देखने में नहीं आता कि वचपन में अत्यन्त प्रेम से माता-पिता और गुरु की सेवा करके आशीर्वाद प्राप्त नहीं करने वाले महापुरुष हो सके है। राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, ईसा, बानेश्वर, तुकाराम, एकनाथ, सहजानन्द स्वामी, निष्कुलानन्द आदि सव माता-पिता और गुरुजनों को देवता के समान समझने वाले थे। ये सब सत्पुरुप अत्यन्त वैराग्य-निष्ट भी थे।
कई मानते हैं कि प्रेम और वैराग्य, दोनों परस्पर विरोधी वृत्तियाँ हैं। इस मान्यता के कितने ही भजन हिन्दुस्तान की भिन्न भिन्न भाषाओं में लिखे हुए मिलते हैं। इस मान्यता के जोश मे सम्प्रदाय-प्रवर्तको ने प्रेमवृत्ति को नष्ट करने का उपदेश भी कई चार किया है। माता-पिता झूठे हैं', 'कुटुम्वीजन सब स्वार्थ के सगे हैं किसकी मां और किसका पिता?' आदि प्रेम-वृत्ति का नाश करने वाली उपदेश-धारा की अपने धर्म प्रथो में कमी नहीं है। इस उपदेश-धारा के प्रभाव से कई लोग प्रत्यक्ष-भक्ति को गौण मानकर परोक्ष अवतार अथवा काल्पनिक देवो की जड़-भक्ति