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शब्द को "आप्त वाक्य" माना गया है। न्यायसूत्र में कहा गया है- 'आप्तोपदेशः शब्दः" (न्या० सू० १/१/७) षडदर्शन समुच्चय में भी आप्त के उपदेश को शब्दआगम प्रमाण कहते हैं।
'आप्त' वह होता है जो वस्तु जिस प्रकार की है उसे उसी प्रकार का बतलानेवाला 'आप्त' होता है। शब्द प्रमाण का वर्गीकरण दृष्टार्थ शब्द और अदृष्टार्थ शब्द के रूप में भी किया जाता है। एक अन्य वर्गीकरण के अनुसार वैदिक शब्द तथा लौकिक शब्द के रूप में भी किया जाता है। कारणवाद
प्रत्येक कार्य का कोई न कोई कारण होता है बिना कारण के कार्य संभव नहीं होता है इस प्रकार कारण और कार्य में आनन्तर्य सम्बन्ध होता है। कारण कार्य का पूर्ववर्ती होता है और कार्य कारण का पश्चातवर्ती होता है। किन्तु सभी पूर्ववर्ती को कारण नहीं माना जा सकता है- पूर्ववर्ती भी दो रूपों में उपस्थित होता है- १. नियत पूर्ववर्ती, २. अनियत पूर्ववर्ती।
नियत पूर्ववर्ती कार्य की उत्पत्ति से पूर्व नियत रूप में रहता है। अनियत पूर्ववर्ती का स्वभाव है कि कभी रहता है कभी नहीं। इस प्रकार कारण कार्य भाव को निरूपाधिक या अन्यथासिद्ध होना चाहिये। कारण कार्य का अन्यथासिद्ध नियतपूर्ववृत्ति होता है। न्यायदर्शन कारण-कार्य सिद्धान्त को स्वयं सिद्ध मानता है। सांख्य दर्शन से इसका यह भेद है जहां सांख्य सत्कार्यवाद का पोषक है वहां न्याय असत्कार्यवाद को मानता है। सांख्य के अनुसार कारण में कार्य पूर्व से विद्यमान रहता है कार्य केवल व्यक्त अवस्था, का नाम है- 'नासतो विद्यते भावः ना भावो विद्यते सत्। इस पर सांख्य का कारण कार्य सिद्धान्त आधारित है। न्यायदर्शन का सिद्धान्त 'आरम्भवाद' है। क्योंकि
'न्यायदर्शन(वात्स्यायनभाष्य) पृष्ठ११ आचार्य दुन्दिराज शास्त्री (चौखम्भा संस्कृत संस्थान वाराणसी) 2 शाब्द माप्तोपदेशु मानमेव चतुर्विधम हरिभद्रसूरि - षडदर्शन समुच्चय-पृष्ठ -१०६- भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन। * अमेथासिद्ध नियतपूर्व वृत्तित्वं कारणत्वम् । (तर्क सग्रह दीपिका पृ०६६)
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