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वस्तुओं के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान है। यहाँ न्याय का दृष्टिकोण यथार्थवादी परिलक्षित होता है। इसी उद्येश्य एवं प्रयोजन हेतु न्याय दर्शन ( सोलह षोडश पदार्थों
को मानता है जो इस प्रकार है
२. प्रमेय,
६. सिद्धान्त,
१०. वाद,
१. प्रमाण,
३. संशय,
४. प्रयोजन,
५. दृष्टान्त,
७. अवयव,
८. तर्क,
६. निर्णय,
११. जल्प,
१२. वितण्डा,
१३. हेत्वाभास,
१४. हल,
१५. जाति,
१६. निग्रह स्थान |
८- आत्मा, ६
न्याय दर्शन में द्रव्यों की संख्या ६ मानी गयी है। जो इस प्रकार है- १ - पृथ्वी, २- जल, ३ – तेज, ४- वायु, ५- आकाश, ६ - काल, ७ – दिक, मनस्। सम्पूर्ण जगत इन नौ द्रव्यों से तथा इनके विभिन्न गुणों तथा सम्बन्धों से बना हुआ है। ये सब नित्य है या तो विभु है या अणु रूप है । सावयवी वस्तुएं अनित्य होती है ।
पृथ्वी, जल, तेज वायु नित्य, निरवयव आदि अतीन्द्रिय है। आकाश निरवयव, विभु है इससे कोइ वस्तु पैदा नहीं होती है। काल और दिक्- बाह्यार्थ माने गये हैं आकाश की तरह विभु और निरवयव है । काल को मापा नहीं जा सकता है। आत्मा अनेक है और प्रत्येक को नित्य, सर्वव्यापी माना गया है। ज्ञान आत्मा का आवश्यक गुण न होकर आगन्तुक होता है । मनस् अणु और नित्य है प्रत्येक आत्मा का अपना अपना मनस् होता है। आत्मा के सांसारिक बन्धन में पड़ने का मूलकारण निश्चय ही उसका मनस् से सम्बद्ध होना है (बन्धनिमित्तं मनः न्याय मंजरी पृ० ४६६) ।
'आत्मा' में समवाय सम्बन्ध से 'बुद्धि' गुण रहता है। अतः 'आत्मनिष्ठ समवायावच्छिन्नवृत्तित्त्वसम्बन्धं' से बुद्धि का स्मरण हो जाता है। ज्ञान दो प्रकार का माना गया है- १ - स्मृति और २- अनुभव | संस्कार मात्र से उत्पन्न होने वाले ज्ञान को
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