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संसार में दुःख ही मात्र नहीं है बल्कि इस दुःख का कारण भी है। बिना कारण के कार्य नहीं होता है।
बौद्ध दर्शन में दुःख के द्वादश हेतु बताये गये हैं। यह प्रतीत्यसमुत्पाद चक्र ही दुःख समुदाय का कारण है और अविद्या इसकी मूल जननी है। प्रतीत्यसमुत्पाद को पाली भाषा में 'पाटिच्चसमुत्पाद' कहा जाता है। प्रतीत्यसमुत्पाद से तात्पर्य है कि'अस्मिन् (कारणे), सति, इदं (कार्य) भवति । अर्थात् कारण विद्यमान होने पर कार्य की अवश्यमेव सिद्धि होती है। जो उत्पन्न होता है वह कार्य होता है कार्य वस्तुतः सापेक्ष होता है और न यह सत् होता न असत् होता है केवल 'प्रतीति' होती है। परमार्थिक दृष्टि से प्रतीत्यसमुत्पाद प्रपञ्चोपाशम, शिव और अमृत यह निर्वाण है। इसलिये भगवान बुद्ध ने स्वयं प्रतीत्यसमुत्पाद को 'बोधि' कहकर सम्बोधित किया है।
बौद्ध दर्शन में वर्णित द्वादशनिदाकडिया भूत वर्तमान तथा भविष्य के जीवनों से सम्बद्ध है। भूतकालीन जीवन से सम्बद्ध कड़ियां हैं-'भव', 'जाति', 'जरामरण। शेष सात का सम्बन्ध वर्तमान जीवन से है। इस प्रतीत्यसमुत्पाद को तालिका के द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है
१. अविद्या २. संस्कार ३. विज्ञान ४. नामरूप ५. षडायतन ६. स्पर्श ७. वेदना ८. तृष्णा ६. उपादान
१०. भव ११. जाति १२. जरामरण ३. तृतीय आर्य सत्य- तृतीय आर्यसत्य है दुःख निरोध। यदि दुःख के कारण का अन्त हो जाय तो दुःख का भी अन्त अवश्य होगा। जब कारण नहीं रहेगा तब कार्य कैसे हो सकता है? वह अवस्था जिसमें दुःखों का अन्त होता है "दुःख निरोध" कही जाती है। दुःख निरोध को बुद्ध ने 'निर्वाण' कहा है। निर्वाण और परिनिर्वाण में अन्तर उपनिषदों के जीवन मुक्ति और विदेह मुक्ति की तरह है।
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