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आश्रव- चूंकि जीव अपने शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार ही पुद्गल कणों को आकृष्ट करता है, इसलिये आकृष्ट पुद्गल-कण को 'कर्म-पुद्गल' कहा जाता है। उस स्थिति में जब कर्म-पुद्गल आत्मा की ओर प्रवाहित होते हैं उसे 'आश्रव' कहा जाता है। बन्ध- आश्रव से जीव अपने स्वरूप को भूल जाता है और 'बन्धन' की ओर ले जाता है। जब वे पुद्गल-कण जीव में प्रविष्ट हो जाते हैं तब उस अवस्था को बन्धन कहा जाता है। बन्धन दो प्रकार का होता है - १- भाव बन्धन, २- द्रव्य बन्धन
जब आत्मा में चार प्रकार की कुप्रवृत्तियाँ प्रविष्ट कर जाती हैं त्यों ही आत्मा बन्धन को प्राप्त होती है इसी को 'भाव-बन्ध' कहते हैं और जब जीव का पुद्गल से संयोग होता है तो 'द्रव्य-बन्ध' कहलाता है। सम्वर-जीव और कर्म के सम्बन्ध का उदय जिस साधन से प्रतिरुद्ध होता है, वह सम्वर है। नये पुद्गल के कणों को जीव की ओर प्रवाहित होने से रोकना 'संवर' कहा जाता है। निर्जरा- जिस साधन से जीव और कर्म के सम्बन्ध की निवृत्ति होती है, वह 'निर्जरा' है। पुराने पुद्गल के कणों का क्षय 'निर्जरा' कहा जाता है इस प्रकार आगामी पुद्गल के कणों को रोककर तथा संचति पुद्गल के कणों को विनष्ट कर जीव कर्म पुद्गल से मुक्त हो जाता है। मोक्ष- जीव के स्वरुप को आवृत्त करने वाले समस्त कर्मों का क्षय ही 'मोक्ष' है। जैन दर्शन में मोक्षानुभूति के लिये सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन और सम्यक चरित्र अर्थात् तिरल को आवश्यक माना गया है। सम्यक दर्शन-ज्ञान चरित्राणि मोक्षमार्गः ।'
____ मोक्ष के लिये त्रिरत्न के साथ-साथ ‘पंच-महाव्रत' का पालन भी आवश्यक है। बौद्ध धर्म में इसे 'पंचशील' के नाम से अभिहित किया गया है। ये महाव्रत हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह।
'तत्वार्थधिगम, सूत्र-१,२-३।