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जीव' कहलाता है 'बद्ध जीव' भी दो प्रकार का होता है- 'स' और स्थावर । 'स' जीव गतिमान और स्थावर गतिहीन होते हैं । जीव अपने आयतन भूत शरीर के अनुसार दीपक प्रकाशवत संकोच - विकास प्राप्त करता है जिससे हस्ति शरीर में पहुंचकर हस्ति परिणाम और पुत्तिका शरीर में पुत्तिका परिणाम का बन जाता है । किन्तु ऐसा मानना ठीक नहीं है क्योंकि इससे छतादिगत प्रदीप प्रकाशवत् चींटी के शरीर में जीव की महानता तथा गृहगत् प्रदीप प्रकाशवत् हस्त के शरीर में अल्पचेतना उत्पन्न होगी तथा शरीर मात्र परिच्छिन्न जीव अवयवों के आनन्त्य की कल्पना करनी होगी जो सम्भव नहीं ।
अजीव
चैतन्यहीन द्रव्य 'अजीव है। इसके पाँच भेद हैं- पुद्गल, आकाश, काल, धर्म और अधर्म। पुदगल के दो भेद हैं- अणु रूप और संघातरूप । इन दोनों में स्पर्श, रस, गन्ध तथा रूप गुणों का अस्तित्व होता है। जैन दर्शन में शब्द और कर्म को पौदगलिक - पुद्गल जन्य माना जाता है।
आकाश
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आवरण का अभाव ही 'आकाश' है। अस्तिकाय - मूर्त्तद्रव्यों को प्रवेश और निर्गम के लिये अवकाश देने वाला पदार्थ आकाश है। आकाश दो प्रकार का होता है-लोकाकाश और अलोकाकाश । लोकाकाश में जीव, पुद्गल, धर्म और अधर्म निवास करते हैं । जगत के बाहर जो अन्य भाग है अलोकाकाश है ।
काल- पदार्थ के विविध परिणामों का निमित्तभूत पदार्थ काल है। इसके दो भेद हैं १- व्यवहारिक | २- परमार्थिक |
व्यवहारिक काल अनित्य होता है और परमार्थिक काल नित्य होता है। काल 'अनस्तिकाय' कहा जाता है क्योंकि यह स्थान नहीं घेरता है ।
धर्म और अधर्म- द्रव्यों को गतिशील बनाने में सहायक पदार्थ को धर्म कहा जाता है। और अधर्म-धर्म का प्रतिलोम है । पदार्थों के गति का अवरोधक पदार्थ 'अधर्म' है ।
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