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की दृष्टि से देखने पर दर्शन की हमारी यह प्राचीन लोकायत् प्रणाली, स्पष्ट ही अनेक त्रुटियों से भरी थी । वह एक किस्म के स्वयंस्फूर्त और सीधे-सादे भौतिकवाद का स्वरूप थी। किन्तु प्राचीन भारत के इस भौतिकवाद नें प्रकृति और संसार के बारे में हमारे ज्ञान के प्रथम तत्व को मोटे तौर से प्रकट किया था । यद्यपि इसका कोई ठोस वैज्ञानिक आधार नहीं था तो भी इसने सामाजिक प्रगति का मार्ग प्रशस्त किया। इस दर्शन नें अन्धविश्वास और मानवीय क्रियाकलापो में दैवी हस्तक्षेप के विचारों को ठुकराया ।
इस प्रकार लोकायत दर्शन एक प्रगतिशील और आशावादी दर्शन था। यह दर्शन न केवल परिकल्पना के महान सृजनात्मक प्रयासों के लिये बल्कि जनता की भौतिक खुशहाली और सांस्कृतिक प्रगति के लिये भी रास्ता तैयार किया ।
जैन दर्शन
जैन दर्शन भारतीय दर्शन के विशाल परिवार का एक विशिष्ट सदस्य है, जिसे विद्वान जैनाचार्यों ने चिन्तन, मनन, आलोचन प्रत्यालोचन आदि अनुशीलन के विविध प्रकारों का आहार दे ऐसा पुष्ट और बलवान ऐसा समृद्ध और सम्पन्न बनाया है जिससे वह अनन्त काल तक जिज्ञासु जनों का मनस्तोष करता रहेगा ।
नास्तिक दर्शन की परम्परा में चार्वाक दर्शन के उपरान्त जैन दर्शन का महत्वपूर्ण स्थान है। जिस समय भारतवर्ष में बौद्ध दर्शन का विकास हो रहा था। दोनों ही दर्शन छठीं शताब्दी में विकसित होने के कारण समकालीन दर्शन कहे जाते हैं । किन्तु दोनों दर्शनों में अनेक मौलिक अन्तर विद्यमान होने पर भी ये दोनों धर्म अपने बाह्य रूप में समान लगते हैं । कारण इसका यह है कि ये दोनों धर्म ब्राह्मण धर्म से पृथक हैं और दोनों भिक्षुओं के धर्म के रूप में प्रसिद्ध हैं ।
जिस प्रकार विष्णु को देवता मानने वाले अपने को 'वैष्णव' कहते हैं और शिव को शक्ति मानने वाले अपने को 'शाक्त' कहते हैं उसी प्रकार 'जिन' को देवता मानने
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