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निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि यथार्थ में सर्वथा एवं सबसे अधिक विश्वसनीय एकमात्र प्रमाण तो 'प्रत्यक्ष' ही है। जब तक किसी वस्तु का प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा ज्ञान नहीं होता है तब तक उस वस्तु के विषय में जो भी ज्ञान प्राप्त होता है वह सन्देह से मुक्त नहीं होता है, केवल संभावित मात्र होता है। 'देखने' का अर्थ है 'प्रत्यक्षप्रमाण का गोचर करना' । यही कारण है कि श्री शंकराचार्य को भी, ब्रह्म को जानने के लिये 'अपरोक्षानुभूति' ही माननी पड़ी ।
चार्वाक को छोड़कर प्रायः सभी भारतीय दर्शन अनुमिति को प्रमाण मानते हैं किन्तु चार्वाक मानता है कि अनुमान से निश्चयात्मक ज्ञान नहीं प्राप्त होता है अनुमान अज्ञात का ज्ञान है। अनुमान का आधार व्याप्तिज्ञान है अतः व्याप्तिज्ञान के निःसन्देह होने पर ही अनुमान निश्चयात्मक हो सकता है। धूम और अग्नि में यदि व्याप्ति ज्ञान का निश्चय हो जाय तभी धूम देखकर अग्नि का अनुमान किया जा सकता है । परन्तु सभी धूम के साथ सभी अग्नि का व्याप्ति सम्बन्ध संभव नहीं । अतेव किसी भी प्रमाण से धूम और अग्नि के व्याप्ति सम्बन्ध का निश्चय ज्ञान संभव नहीं हो सकता है। चार्वाकों के अनुसार अनुमिति वहीं तक सही हो सकती है जहां तक प्रकृति के क्रियाकलापों की बात है। अन्यत्र जरूरी नहीं है कि वह सही ही हो । सभी अनुमान अप्रमाण नहीं है लोकसिद्ध अनुमान प्रमाण है परन्तु अतीन्द्रिय परलोक आदि का साधक अनुमान प्रमाण नहीं ।' चार्वाक शब्द प्रमाण को भी ज्ञान का स्रोत नहीं मानते थे क्योंकि कि वे वेदों की प्रामाणिकता को चुनौती देते थे । चार्वाक भौतिकवादी मानते हैं कि शब्द अनुमान में ही सन्निविष्ट है । शब्द प्रमाण अतिदेशवाक्य पर निर्भर होते हैं और अतिदेशवाक्य की प्रामाणिकता दूसरे पर निर्भर होगी इस प्रकार इसमें अनवस्था दोष स्पष्ट है
‘तस्मादप्रमाणंशब्दः अनृतव्याघात पुनरूक्त दोषेभ्यः' (न्याय भाष्य २ / १/५७)।
1 लोकप्रसिद्धमनुमान चार्वाकैरपीष्यत एवं यत्तु । कैश्चिल्लौकिक भगिमतिकृम्यानुमानमुच्यते तन्निषिध्यते । । ३५ || बृ० सूत्र | 2 शब्दोऽनुमानर्थस्यानुपलब्धेरनुमेयत्वाट्- न्याय द० (२/१/४६)
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