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१ - चार्वाक - १ - प्रत्यक्ष ।
२ - बौद्ध – २ – प्रत्यक्ष + अनुमान ।
३- सांख्य - ३ - प्रत्यक्ष + अनुमान + शब्द ।
४- न्याय –४– प्रत्यक्ष + अनुमान + शब्द + उपमान ।
५- प्रभाकर मीमांसक - ५ - प्रत्यक्ष + अनुमान + शब्द + उपमान + अर्थापत्ति । ६- भाट्ट मीमांक - ६ - प्रत्यक्ष + अनुमान + शब्द + उपमान + अर्थापत्ति +
अनुपलब्धि ।
७- पौराणिक - ८ (अर्था० + अनुप०) +
चार्वाक केवल प्रत्यक्ष का ही प्रमाण (वार्हस्पत्यसूत्र -२०)
चार्वाक मानता है कि इन्द्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष से उत्पन्न ज्ञान प्रत्यक्ष है। अर्थात् प्रत्यक्षेतर अनुमान प्रमाण सर्वथा अमान्य है। पंचेन्द्रियों के बाहर कोई वस्तु नहीं है। इस पञ्चविधिन्द्रिय प्रत्यक्ष द्वारा अनुभूत वस्तु प्रमाण सिद्ध है और अन्य वस्तुएं कल्पना प्रसूत है । प्रत्यक्ष के द्वारा जो भी ज्ञान प्राप्त होता है वह अधिक विश्वसनीय होता है इसमें शंका या तर्क के लिए कोई स्थान नहीं होता है । अतेव प्रत्यक्ष निर्विवाद रूप से यथार्थ ज्ञान है । प्रत्यक्ष से दृष्टिगोचर होने वाले पदार्थ का ही अस्तित्व है । '
यद्यपि सभी शास्त्रकारों नें एकमात्र प्रत्यक्ष प्रमाण मानने के कारण, चार्वाकों की बहुत निन्दा की है। और अनेक प्रकार से इनका खण्डन किया है परन्तु उन लोगों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से चार्वाक के स्थान को देखकर उसका तिरस्कार किया है। वस्तुतः एक दर्शन का दृष्टिकोण दूसरे दर्शन के दृष्टिकोण से सर्वथा भिन्न है अतेव इन दर्शन के सिद्धान्तों में भेद होना ही स्वाभाविक उचित और सत्य है ।
संभव + ऐतिहासिक |
मानता है 'प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणम’–
। त्यक्षगम्यमेवास्ति नात्स्यद्रष्टमद्रष्टतः । दृष्टवादिभिश्चापि नादृष्टं सदृष्टमुच्यते ।। (सर्व० सि० संग्रह)
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