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वाचस्पति मिश्र ने अवच्छेदवाद का, श्री पदमपादाचार्य तथा श्री प्रकाशात्मयति ने प्रतिबिम्बवाद का तथा आचार्य सुरेश्वर ने आभासवाद का समर्थन किया है।
'आभास' शब्द का अर्थ ब्रह्मसूत्र अध्यास भाष्य में तथा इसकी व्याख्या 'भामती' तथा 'परिमल कल्पतरु' में स्पष्ट रूप से की गयी है। अध्यास का लक्षण आचार्य शङ्कर ने 'स्मृतिरूपः परत्र पूर्व दृष्टावभासः' (अध्यासः)। इस पर भामतीकार ने कहाअवसन्नोऽवमतो वा भासोऽवभासः' सुरेश्वराचार्य ने 'आभास' को चिदाभास, चिबिम्ब और कूटस्थाभास शब्द से भी अभिहित किया है।' पं० 'बलदेव उपाध्याय' ने अपने ग्रन्थ "संस्कृत वाङ्गमय का वृहद इतिहास" 'दशम खण्ड वेदान्त' में इसका विस्तृत वर्णन किया है। जहां तक आभासवाद का प्रश्न है इस सिद्धान्त के अनुसार मूलतत्त्व (ब्रह्म) एवं आभासमात्र द्वैतरूप जगत में अभिन्नत्व नहीं है। सुरेश्वराचार्य का यह मानना है कि आभासवाद के अनुरूप अविद्या के कारण मूलसत्य ब्रह्म में जिस व्यवहारिक जगत् की प्रतीति होती है वह आभासमात्र होने के कारण सत्य नहीं है। जब कि प्रतिबिम्बवाद की दृष्टि से प्रतिबिम्ब सर्वदा सत्य होता है। अज्ञान के कारण केवल असत्य दिखलाई पड़ता है। आभासवाद के अनुसार व्यवहारिक जगत् की सत्यता भी तभी तक कही जा सकती है जब तक कि अविद्या की निवृत्ति नहीं हो जाती है।
जिस प्रकार मूर्च्छित अवस्था के व्यक्ति को उस समय की ऐसी वस्तुओं की सत्यता प्रतीत होती है जो उसके सम्मुख नहीं उपस्थित होती और जब मूर्छा हट जाती है तब उसे मूर्छाकाल की वस्तुएं मिथ्या प्रतीत होने लगती है। उसी प्रकार अज्ञान के कारण व्यक्ति को जगत के समस्त क्रियाकलाप सत्य प्रतीत होते है किन्तु परमार्थ बोध होने पर जगत् के समस्त व्यवहार मिथ्या प्रतीत होते है। इस प्रकार सुरेश्वराचार्य के मत में जगत की सत्यता भी आभासमात्र है, वास्तविक नहीं। किन्तु बाद में सुरेश्वराचार्य के अनुवायियों ने उनके आभासवाद में व्यवहारिक सत्यता का
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