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________________ साक्षी के विषय में भी शंकरोत्तर अद्वैतियों में मतभेद है। कुछ विद्वान् प्रति शरीर में भिन्न साक्षी को मानते है कुछ विद्वान सब शरीरों में एक ही साक्षी स्वीकार करते है। कुछ विद्वान साक्षी को जीव साक्षी और 'ईश्वर साक्षी' इन द्विविध रूपो में मानते है । आचार्य चित्सुख साक्षी एवं प्रमाता में विभेद मानते है वे साक्षी को स्वतंत्र एवं द्रष्टा मात्र मानते है इसके विपरीत प्रमाता, आचार्य चित्सुख के अनुसार ज्ञाता है तथा ज्ञान के साधनों के कार्य के अधीन है । ' यह कहा जा सकता है कि व्यवहारतः ब्रह्म, ईश्वर, साक्षी और जीव में ही भेद दिखाई यह परमार्थतः भेद नहीं है। परमार्थिक दृष्टिकोण से सब परब्रह्म' ही है। ईश्वर और जीव अद्वैत वेदान्त की मान्यता है कि ईश्वर और जीव दोनों ब्रह्म ही हैं माया या अविद्या के कारण ब्रह्म की प्रतीति ईश्वर और जीवों के रूप में होती है और ईश्वर की प्रतीति भी जीव की दृष्टि से ही है। शाङ्कर वेदान्त में ईश्वर और जीव अभिन्न है भेद केवल व्यवहारिक है परमार्थिक नहीं । परमार्थतः - 'जीवों ब्रह्मैव नाऽपरः । ईश्वर में माया या अविद्या की आवरण शक्ति या अज्ञान का सर्वथा अभाव है, जीव माया या अविद्या की आवरण और विक्षेप दोनों शक्तियों से सम्बद्ध है । जीव की उपाधि औपचारिक है वह वस्तुतः ब्रह्म ही है। जीव का जीवत्व अविद्याजन्य भ्रान्ति है जीव का बन्धन और मोक्ष व्यवहारिक है परमार्थिक नहीं । यद्यपि शंङ्करोत्तर अद्वैतवेदान्तियों में ईश्वर और जीव के विषय में मतभेद है जो प्रतिबिम्बवाद, एकबिम्बवाद, अवच्छेदवाद तथा आभासवाद के रूप में प्रतिपादित हुये है । आभासवाद सिद्धान्त के प्रतिपादक सुरेश्वराचार्य है। वाचस्पति मिश्र ने अद्वैतवाद का 1 तत्व प्रदीपिका (चतुर्थ परिच्छेद), पृ० ३८१-३८२ एवं इस पर देखिये नयन प्रसादिनी टीका सागर, बम्बई १९३१ ) 350
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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