________________
नृसिहाश्रम के मत में परमार्थिक भेद का निराकरण श्रुति बारम्बार करती है। युक्ति और तर्क से भी भेद की पारमार्थिकता सिद्ध नहीं होती है। क्योंकि जो भी युक्ति दी जाती है वह निर्दोष नहीं रहती है। वास्तव में नृसिंहाश्रम ने भेदखण्डन और अभेदसिद्धि में श्रुति प्रामाण्य का सहारा नहीं लिया है। उन्होंने भेद खण्डन के द्वारा अद्वैतसिद्धि की है।
अद्वैतदीपिका में भी द्वैतवेदान्त का खण्डन प्रधान विषय है। अतएव उसे भी बाध-प्रस्थान के अन्तर्गत रखा जा सकता है। अद्वैतदीपिका के मंगलाचरण में नृसिंहाश्रमत कहते है
श्रीमद गुरुपदद्वन्द्व ध्याननिषूत कल्मषः ।
कुर्वे तदाज्ञया द्वैतदीपिकां भेदमेदिनीम्।। अर्थात् गुरु की आज्ञा से अद्वैतदीपिका की रचना की गयी है जिसका मुख्य उद्देश्य भेदवाद का भेदन करना है इससे मध्व वेदान्ती टीकाचार्य जयतीर्थ के मत का भी खण्डन है। जयतीर्थ 'आनन्दमय' को ही ब्रह्म स्वीकार करते है परन्तु इसका खण्डन करते हुए नृसिंहाश्रम कहते है कि आनन्दमय ब्रह्म नहीं है, यह अन्नमयादि की तरह विषय और विकार है, तथा जो पंचकोश से परे हो वह ब्रह्म है। ऐसा नृसिंहाश्रम शारीरक भाष्य में युक्तियों और तर्कों से खण्डन करके सिद्ध करते है।
नृसिंहाश्रम और उनके टीकाकारों के अतिरिक्त भी अद्वैतवेदान्ती है जिन्होंने भेद के खण्डन में रुचि ली है। इनमें १६वीं शती के मल्लनाराध्य मुख्य है जिन्होंने अद्वैतरत्न नामक एक ग्रन्थ की रचना की है। नारायणाश्रम (१६वीं ५ ताब्दी)
नारायणाश्रम उद्भुत दार्शनिक थे। इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है। ये नृसिंहाश्रम के शिष्य थे। नृसिंहाश्रम के भेदधिक्कार एवं अद्वैत दीपिका नामक अनुपम
'आस्तामन्य प्रमाणत्वम भेदे सर्ववस्तुनः। भेदप्रमाणमेवैत दद्वैतं साधयत्यलम्।। (भेदधिक्कार पृ ११८)
327