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अर्थात्- आत्मविषयक और आत्माश्रयी अज्ञान आत्मा के ज्योर्तिमयरूप को ढंककर अपनी विभ्रम शक्ति से आत्म-तत्व को जीव, ईश्वर और जगत् की आकृतियों में विक्षिप्त कर देता है। सर्वज्ञ मुनि के गुरु सुरेश्वराचार्य भी अज्ञान शब्द का प्रयोग करना पसन्द करते है ।"
जगतमिथ्यात्त्व के सम्बन्ध में पद्मपादाचार्य का मत है कि मिथ्यात्व को सत्य एवं असत्य के अत्यन्ताभाव का अनाधिकरण कहा है- सत्त्वासत्त्वात्यन्ताभावानधिकरणत्त्वम्' ।` अर्थात् इस मत के अनुसार मिथ्या एवं अनिर्वचनीय जगत को न पूर्णतया सत्य कहा जा सकता है और न ही पूर्णतया असत्य ही कहा जा सकता है। पद्मपादाचार्य का मत है कि मिथ्याज्ञान की निवृत्ति केवल जीव एवं ब्रह्मकत्व विज्ञानाद्भवति न क्रियातः । *
पद्मपादाचार्य ने 'मिथ्या' शब्द के दो अर्थ बताये है- एक तो अपह्नव या निषेध और दूसरा अनिर्वचनीय या सद्सद्विलक्षण | अविद्या या माया के लिये मिथ्या शब्द का प्रयोग सद्सदनिर्वचनीय के अर्थ में किया जाता है 'मिथ्याशब्दोऽत्र अनिर्वचनीयता वचन: ।' अविद्या के लिए कुछ असंभव नहीं है- असंभव को भी संभव के रूप में भा करती है।
वस्तुतः पद्मपाद ही विवरण प्रस्थान के जनक हैं। इस प्रस्थान को टीका प्रस्थान भी कहा जाता है। क्योंकि पंचपादिका शारीरक भाष्य की एक टीका है । वाचस्पति मिश्र (८४० ई० ) - यह आचार्य शङ्कर के बाद के अद्वैतवेदान्त के दार्शनिक है । इनका समय कुछ लोग ८४० ई० मानते है ।' किन्तु न्यायसूची, उनका पहला निबन्ध ग्रन्थ है। इसका रचनाकाल उन्होंने संवत् ८६८ अर्थात् ६७६ ई० बताया है ।
* एन. के. देवराज - भारतीय दर्शन पृ० ५२८
२ पञ्चपादिका - पृ० १०
* पञ्चपादिका पृ० १०
* पञ्चपादिका पृ० ६०
* पञ्चपादिका पृ० ४
आशुतोष शास्त्री - वेदान्त दर्शन, अद्वैतवाद (बंगला संस्करण)
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