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चतुःसूत्री ब्रह्मसूत्र तक ही सीमित । यह ग्रन्थ अधूरी ही प्रतीत होती है, किन्तु माधवाचार्य 'शङ्कर दिग्विजय' में लिखा है पंचपादिका का उत्तरार्द्ध शेष भाग भी है। जिसका नाम 'वृत्ति' था । सम्प्रति 'वृत्ति' नामक वह भाग अनुपलब्ध है।
'शङ्कर दिग्विजय' में वर्णित एक कथा के अनुसार पद्मपादाचार्य की ब्रह्मसूत्र लिखी टीका का पूर्व नाम 'वेदान्तडिण्डिम' था । अब यह पंचपादिका नाम जानी जाती है- 'यत्पूर्वभागः किल पञ्चपादिका तच्छेषगा वृत्तिरिति प्रथीयसी (शङ्कर दिग्विजय श्लोक ७०-७१)
पञ्चपादिका शाङ्कर वेदान्त का अतिमहत्वपूर्ण निबन्धग्रन्थ है इस ग्रन्थ में पद्मपाद ने शाङ्करभाष्य के तात्पर्य का तार्किक और अभूतपूर्व विश्लेषण प्रस्तुत किया है । यह शाङ्करभाष्य का यथार्थ आलक ग्रन्थ है ।
शङ्कर दिग्विजय में चर्तुदश सर्ग में पद्मपाद की तीर्थयात्रा की इच्छा, तीर्थयात्रा का दोष, तीर्थयात्रा प्रशंसा आदि का वर्णन है । यतिराज शङ्कर ने पद्मपाद को शिक्षा देते हुये कहा वत्सपद्मपाद गुरु का सामीप्य ही सबसे बड़ी तीर्थयात्रा है, ' गुरु का चरणोदक ही महान तीर्थ का पवित्र जल है। किन्तु शङ्कराचार्य द्वारा तीर्थयात्रा दोष बताने पर भी पद्मपाद अडिग रहे । वार्तिक रचना में बाधा डालने के कारण पद्मपाद मन ही मन अपने को महान अपराधी समझने लगे थे। भारी पश्चाताप से उनका मन भर गया था अतः मन ही मन तीर्थयात्रा करने का संकल्प कर लिया था । पद्मपाद की बातें सुनने के बाद आचार्य शङ्कर ने तीर्थयात्रा करने का आशीर्वाद दिया। पद्मपाद उत्तर भारत की यात्रा करने के अनन्तर दक्षिण भारत की यात्रा किये । दक्षिण भारत में कालहस्तीश्वर शिवलिंग की पूजा किये तथा इसके बाद रामेश्वर की ओर प्रस्थान किये, रास्ते में मामा का गाँव मिला। मामा-भांजे को देखकर प्रसन्न हुये
शुश्रूषमाणेन गुरे समीपे स्थेय न नेय च ततोऽन्य देशे (शंकर दिग्वि० १४ / ३) पद्याग्रहोऽस्ति तब तीर्थ निषेवणायां विघ्नोमयाऽत्र न खलु क्रियते पुमर्थे । शङ्कर दिग्विजय ११४ / २०
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