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३. परमार्थिक सत्ता - ब्रह्म शङ्कर ने जगत को व्यवहारिक सत्ता के अन्तर्गत रखा है। जगत् व्यवहारिक दृष्टिकोण से पूर्णतः सत्य है। जगत प्रतिभासिक सत्ता की अपेक्षा अधिक सत्य है और परमार्थिक सत्ता की अपेक्षा कम सत्य है। जगत् तभी असत्य होता है जब जगत् की व्याख्या परमार्थिक दृष्टिकोण से की जाती है। जो देश, काल और कारण-नियम के अधीन है वह सत्य नहीं है क्योंकि इसकी उत्पत्ति और विनाश होता है। अतः जगत भी सत्य नहीं है। जगत ब्रह्म का विवर्त है। ब्रह्म जगतरुपी प्रपञ्च का अधिष्ठान है जो विवर्त है उसे परमार्थतः सत्य नहीं कहा जा सकता। अतः विश्व असत्य है।
शड्कर का जगत् विचार बौद्ध मत के शून्यवाद के जगत् विचार से भिन्न है। शून्यवाद के अनुसार जो शून्य है वहीं जगत् के रूप में दिखाई देता है। परन्तु शंकर के मतानुसार ब्रह्म जो सत्य है वही जगत के रुप में दिखाई देता है। शून्यवाद के अनुसार जगत का आधार असत् है जबकि शंकर के अनुसार जगत का आधार सत् है।'
मोक्ष
मोक्ष आत्मा या ब्रह्म के स्वरूप की अनुभूति है। आत्मा या ब्रह्म नित्य शुद्ध चैतन्य एवं अखण्ड आनन्द स्वरूप है। आत्मा ज्ञान स्वरूप है और मोक्ष आत्मा का स्वरूप ज्ञान है। भगवान बुद्ध ने अद्वैत परमतत्व और निर्वाण को एक ही माना है उसी प्रकार शंकराचार्य के अनुसार ब्रह्म और मोक्ष एक ही है। जो ब्रह्म को जानता है वह स्वयं ब्रह्म ही हो जाता है। इस प्रकार ब्रह्मज्ञान और ब्रह्मभाव एक ही है। मोक्ष उत्पाद्य नहीं है और न तो कोई नवीन बात होती है बल्कि मोक्ष प्राप्त हुये की प्राप्ति है-'प्राप्तस्य प्राप्ति मोक्षः।' जीव का जीवत्व अविद्या के करण है। अविद्या के वशीभूत जीव देहेन्द्रियान्तः करणदि से तादात्य कर लेता है और देह की सुख-दुख की
'शाङ्करभाष्योपनिषद् ४.१, शाङ्कर भाष्य ब्रह्मसूत्र १.१.४ २ ब्रह्मविद ब्रह्मैव भवति- मुण्डकोपनिषद् ३.२.६
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