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विद्यारण्य ने पञ्चदशी में माया या अविद्या के तीनों रूपों का वास्तव, अनिर्वचनीय और तुच्छ का वर्णन किया है। जगत विचार
'ब्रह्मसत्यं जगन्निमिथ्या जीवो ब्रह्मैव नाऽपरः' । अर्थात् शङ्कर के मतानुसार ब्रह्म ही सत्य है, जगत् मिथ्या है तथा जीव और ब्रह्म अभिन्न है। जगत् की उत्पत्ति के सम्बन्ध में दार्शनिकों में पर्याप्त मतभेद है कोई अचेतन परमाणुओं से उत्पत्ति मानता है, कोई सत्कार्यवाद, कोई असत्कार्यवाद तथा परिणामवाद और विवर्तवाद को मानता है। इसमें से आचार्य शंकर विवर्तवाद को मानते है। तालिका से स्पष्ट है
कारणकार्य
सत्कार्यवाद (सांख्य)
असत्कार्यवाद
(आरम्भवाद) (न्यास वैशेषिक)
परिणामवाद (रामानुज) विवर्तवाद (शंकर)
शंकराचार्य के अनुसार जगत् ब्रह्म का विवर्त है, परिणाम नहीं। जगत् ब्रह्म की प्रतीति मात्र है, विकार या तात्विक परिवर्तन नहीं। ब्रह्म कूटस्थ नित्य है अतः उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन संभव नहीं है। माया या अविद्या के कारण ब्रह्म जीव और जगत के रूप में प्रतीत होता है अतः जगत्कारणता सगुण ब्रह्म का तटस्थ लक्षण है। शंकर ने अपने दर्शन में विध कोटियों का उल्लेख किया है
१. प्रतिभासिक सत्ता - यथा-स्वप्न, भ्रम २. व्यवहारिक सत्ता - जगत-जीव, ईश्वर
५ तुच्छाऽनिर्वचनीया च वास्तवी चैत्यसौ त्रिधा। ज्ञेया माया त्रिभिर्वोधै. श्रौतयौक्तिकलौकिकैः ।। पचदशी
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