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का बाध हो जाता है उसी प्रकार ब्रह्म, माया या अविद्या के कारण जीव जगत प्रपञ्च रुप में भासित होता है। और निर्विकल्प अपरोक्ष ज्ञान से जब ब्रह्मानुभव हो जाता है तब जीव जगत प्रपञ्च का बाध हो जाता है। यही मोक्ष या आत्म स्वरुप का ज्ञान है। अविद्या
शङ्कर माया को ईश्वर की मूल शक्ति मानते है किन्तु इससे भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि कहीं-कहीं विश्व को 'अविद्यात्मक', 'अविद्याकल्पित' तथा 'अविद्याप्रत्युत स्थापित' भी कहा है। किन्तु यह भी निश्चत है कि शङ्कर ने अविद्या को ईश्वर नहीं कहा है उन्होंने ईश्वर को ‘मायिनः' तो कई बार कहा है, किन्तु 'अविद्यावान' एक बार भी नहीं कहा। इसके विपरीत उन्होंने ईश्वर को सर्वज्ञ, सर्वविद् आदि नामों से अवश्य अभिहित किया है। शङ्कर के ये कथन इस बात को इंगित करते है कि उनके अनुसार अविद्या और माया को पर्यायवाची नहीं माना जा सकता। ईश्वर अथवा जगन्नियन्ता को अविद्या का विषय नहीं कहा जा सकता । ईश्वर को अविद्या का विषय मानना आत्म-व्याघाती होगा। देह संघात आदि के साथ आत्मा की तद्रूपता मान लेना ही अविद्या या अज्ञान है। कर्ममात्र से अज्ञान का नाश नहीं हो सकता क्योंकि कर्म और अज्ञान का नाश नहीं हो सकता क्योंकि कर्म और अज्ञान में कोई विरोध नहीं है। जिस प्रकार अंधकार का नाश केवल ज्ञान से ही होता है, उसी प्रकार अज्ञान का नाश केवल ज्ञान से ही होगा। यह अविद्या के ही कारण है कि हमें आत्मा ससीम प्रतीत होती है, अविद्या के नष्ट हो जाने पर आत्मा जो नितान्त अभेद है, स्वस्वरूप को अपने आप प्रकट कर देता है। यह उसी प्रकार हे जैसे बादलों के छट जाने पर सूर्य स्वतः प्रकाशित हो जाता है। अविद्या अनिर्वचनीय और अनादि है यह आत्मा या जीव पर आरोपित एक उपाधि है।
1 ब्रह्मसूत्र, शाकर भाष्य २.१.१४
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