________________
शङ्कर माया का प्रयोग करने वाले पहले दार्शनिक नहीं थे । यदि व्यवहारिक जगत की व्याख्या के लिये माया का प्रयोग करने के कारण शङ्कर को मायावादी कहा जा सकता है तो प्राचीन काल के उन ऋषियों और विद्वानों को भी मायावादी कहना चाहिए जिन्होंने शास्त्रों की रचना की है ।
शङ्कर माया को सर्वशक्तिमान ईश्वर की रहस्यमयी शक्ति मानते है ईश्वर अनिर्वचनीय दिव्य शक्ति के द्वारा विश्व की रचना करता है और स्वयं उससे अप्रभावित उसी प्रकार से रहता है जैसे जादूगर अपनी जादू की शक्ति से अप्रभावित रहता है ।' माया का आश्रय ईश्वर ही है । सर्वत्र ईश्वर से ही संबन्ध रखने वाले जो नाम रूप हैं जिसे इस दृश्य जगत का बीज कहा गया है, और जिसे न सत् कह सकते है और न ही असत्, वह माया ही है। इस माया के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। वह त्रिगुणात्मिका माया सम्पूर्ण संसार की बीज है।' वह समस्त इन्द्रियानुभाविक विश्व का कारण है। तीन गुणों वाली माया ईश्वर की अपनी शक्ति है और वहीं संसार की सब वस्तुओं की मूलस्रोत है। शंकर कहते है कि यह माया सांख्य की प्रकृति से भिन्न है क्योंकि यह स्वतंत्र और सत् है जबकि माया दूसरे पर आश्रित है।' शंकर का विचार है कि संसार की उत्पत्ति सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान ईश्वर के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार नहीं हो सकती है। इस प्रकार शङ्कर के मत में माया अनादि है, भौतिक और जड़ है, ज्ञाननिरस्या है माया विवर्त है, भावरूप हैतथा सदसदनिर्वचनीय या भावाभाव विलक्षण है।
जगत प्रपञ्च माया की प्रतीति है, जीव और जगत दोनों मायाकृत है। जिस प्रकार रज्जु में भ्रम से सर्प की प्रतीति होती है और रज्जु का ज्ञान हो जाने पर सर्प
1 शाकर भाष्य ब्रह्मसूत्र २.१.३
2 'शाङ्कर भाष्य ब्रह्मसूत्र २.१.१४
3 शाङ्कर भाष्य ७.४, १३.१६, १३२६
4 शाङ्कर भाष्य (ब्रह्मसूत्र) १४.३
5 शाङ्कर भाष्य (ब्रह्मसूत्र) १४.३
ब्रह्मसूत्र शाकर भाष्य १.१.२
6
268