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तत्वमसिवाक्य के उद्घाटन में जीव और ईश्वर का सम्बन्ध स्पष्ट होता है । ततः त्वम् का वाच्यार्थ क्रमशः ईश्वर और जीव है। जीव और ब्रह्म
वस्तुतः ब्रह्म और जीव दोनों उसी प्रकार अभिन्न है जिस प्रकार चिनगारियां अग्नि से अभिन्न होती है। यदि जीव को ब्रह्म या आत्मा से भिन्न माना जाय तब जीव का ब्रह्म से तादात्म्य नहीं हो सकता। क्योंकि दो विभिन्न वस्तुओं में तादात्म्य नहीं सोची जा सकती है। जीव और ब्रह्म में भेद उपाधि के कारण है।' जीव और ब्रह्म के सम्बन्ध की व्याख्या के लिये शंकर ने उपमा क सहारा लिया है जिसे प्रतिबिम्बवाद कहते है- जिस प्रकार एक चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब जब जल की भिन्न-भिन्न सतहों पर पड़ता है तब जल की स्वच्छता और मलिनता के अनुरुप प्रतिबिम्ब भी स्वच्छ और मलिन दीख पड़ता है उसी प्रकार जब एक ब्रह्म का प्रतिबिम्ब अविद्या पर पड़ता है तब अविद्या को प्रकृति के कारण जीव भी भिन्न आकार प्रकार का दीख पड़ता है।
माया
आत्मा से भिन्न जो कुछ भी हो सकता है उसे शंकराचार्य ने 'माया' कहा है। 'माया' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम ऋग्वेद में हुआ है। ऋग्वेद का प्रसिद्ध मंत्र है- “इन्द्रो मायाभिः पररुप ईयते। इसका अर्थ है कि इन्द्र रहस्यमयी शक्ति के द्वारा अनेक रुप धारण करता है। इनसाइक्लोपीडिया आफ रिलीजन एण्ड एथिक्स में कहा गया है कि 'माया' शब्द का प्रयोग सुर एवं असुर दोनों के छल-कपट के लिये किया गया है। जैसे- असुरों की माया को जीतकर ही इन्द्र ने सोम को जीता। माया के कारण ही सूर्य और चन्द्रमा एक दूसरे के बाद आते है। अथर्ववेद में भी 'माया' शब्द का प्रयोग
1 ब्रह्मसूत्र २/३/४८ - ऋग्वेद-६/४७/१८ (इनसाइक्लोपीडिया आफ रिलीजन एण्ड एथिक्स मे उदधृत 3 ऋग्वेद १०/५८/१८ (वही)
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