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जब ब्रह्म का माया से सम्बन्ध होता है तब वह ईश्वर हो जाता है और जब ब्रह्म का अविद्या से सम्बन्ध होता है तब वह जीव हो जाता है इस प्रकार जीव और ईश्वर दोनों ही ब्रह्म के विवर्त है। ईश्वर और जीव दोनों की व्यवहारिक दृष्टि से ही सत्यता है परमार्थिक दृष्टि से नहीं।' इससे स्पष्ट होता है कि जीव और ईश्वर एक दूसरे के शारीरिक उपाधियां ही उत्पन्न होती है, आत्मा नित्य होने से कभी उत्पन्न नहीं होता है। जीव और ईश्वर में समानताओं के अतिरिक्त भिन्नता भी है यथा - ईश्वर मुक्त है जीव बन्धन ग्रस्त है, ईश्वर अकर्ता है जब कि जीव कर्ता है। ईश्वर उपासना का विषय है जब कि जीव उपासक है। ईश्वर जीव का शासक है जबकि जीव शासित है ईश्वर जीवों को कर्मों के अनुसार सुख-दुःख प्रदान करता है। जीव ईश्वर के अंशों की तरह है, यद्यपि ईश्वर निरवय है ।
शङ्कर ने जीव और ईश्वर के सम्बन्ध को बताने के लिये मुण्डकोपनिषद् में वर्णित उपमा की ओर संकेत किया है
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते ।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्ति, अनश्ननन्यों अभिचाकशीति ।।
(मुण्डको० ३/१/१)
अर्थात् साथ-साथ रहने वाले तथा समान आख्यान वाले दो पक्षी एक ही वृक्ष का आश्रय करके रहते है। उनमें से एक फल को मधुर समझकर बड़े चाव से खाता है और दूसरा बिना खाये सिर्फ देखा करता है। पहला जीव है जब कि दूसरा ईश्वर है । जीव भोक्ता है जब कि ईश्वर द्रष्टा है । जीव कर्ता है ईश्वर नियन्ता है । शंकराचार्य के मत में दोनों अविद्योपाधिक और काल्पनिक है शंकर के मत में प्रतिबिम्बवाद अवच्छेदवाद और आभासवाद के बीज है जिसका विकास परवर्ती अनुवायियों ने किया ।
1 शाङ्कर भाष्य १/१ / ३२ (ब्रह्मसूत्र ) 2 ब्रह्मसूत्र २/३/१७
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