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तो हम भ्रान्त प्रत्यक्षीकरण और यथार्थ प्रत्यक्षीकरण में भेद न कर पाते। यदि दिखाई देना मात्र सत् का मानदण्ड हो तो मृगमरीचिका का जल या रस्सी का सर्प कभी असत् न माना जा सकता।
इसका तात्पर्य यह है कि कम से कम कुछ परिस्थितियों में हमें सामान्य वस्तुवाद छोड़ना ही पड़ेगा। शङ्कर ने भी कहा कि–'कोई वस्तु केवल इसलिये सत् नहीं कही जा सकती क्योंकि वह दिखाई देता है। प्रतिपत्ति तो सत्यत्त्व और मिथ्यात्त्व की समान रूप से होती है। रज्जु में सर्प की प्रतीति भ्रम है और इस प्रकार की दिखाई देने वाली वस्तुएं मिथ्या है।
आचार्य शङ्कर कहते है कि- 'सत्य वह है जिसके विषय में हमारी बुद्धि परिवर्तित न हो। 'यद्विषया बुद्धिर्न व्यभिचरति तत्सत'। महाभारतकार कहते हैं- सत्य वह है जो अव्यय और निर्विकार हो।' 'ब्रह्म' शब्द का तात्पर्य
‘ब्रह्म' शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत की 'बृह' धातु से हुई है। 'बृह' का अर्थ हैवृद्धि को प्राप्त होना अथवा बढ़ना। शंकर के अनुसार यदि हम इसके धात्वर्थ पर विचार करें तो ब्रह्म शब्द का अर्थ चिर, शुद्ध आदि स्मरण आने लगता है। अपनी महानता के कारण निरतिशय अथवा भूमा ब्रह्म कहलाता है। ब्रह्म का यह नाम पड़ने का यही कारण है कि यह बृहत्तम और पूर्ण है।
ब्रह्मसूत्रकार वादरायण का मत है कि ब्रह्म शब्द का प्रयोग उपनिषद् में निरपेक्ष सत् के अर्थ में किया जाता रहा है। वह सम्पूर्ण संसार का उपादान और निमित्तकारण
माना जाता है।
'शाङ्कर भाष्य गीता, २/१६ २ शन्तिपर्व- १६२, १० 'शाङ्कर भाष्य ब्रह्मसूत्र १/१/१ 'शाकर भाष्य केनोपनिषद् १५
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