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उद्धृत किया है- 'एतच्चबृहदारण्यकोपनिषद्भाष्यवर्तिकेनैष्कर्म्यसिद्धेश्चन्द्रिकाटीकायां च स्पष्टीकृतम्
'भावनोपचयाद देवो भूत्वा विद्वानिहैव तु। देवानप्येति सोऽग्न्यादीञ् शरीरत्याग्रतः परम् ।।'
(वृ० अ० उ० भा० वा० ४/१/२७ पृ० १३५७) श्री ब्रह्मदत्ताचार्य के सिद्धान्त संक्षेप में ये है१. ब्रह्म से जीव उत्पन्न होते है और ब्रह्म में लीन हो जाते है। २. उपनिषद् वाक्यों में 'आत्मा वाऽरे' इत्यादि वाक्यों की प्रधानता है न कि 'तत्वमसि' इत्यादि वाक्यों की। ३. भावना की प्रधानता, नियोग की नहीं। ४. ब्रह्मदत्त का जीव विज्ञानवादियों की भांति प्रतीत होता है। ५. श्री ब्रह्मदत्त नैरयायिकों के समान असत्कार्यवादी प्रतीत होते है। ६. ये ध्यान नियोगवादी है। ये प्रपञ्च विलयवाद को मानते थे इसका खण्डन शङ्कराचार्य ने किया है। ७. ये जीवनमुक्ति को नही मानते है। ८. ये श्री भर्तृप्रपञ्च तथ मण्डन मिश्र के अभिप्रेत ज्ञान, कर्म समुच्चय से भिन्न प्रकार के ज्ञान-कर्म समुच्चय को मानते है। ६. ये प्रसंख्यानवादी है। १०. श्री ब्रह्मदत्त का जीव चार्वाक आदि के समान नश्वर है। ११. श्री ब्रह्मदत्त का जीव पौराणिकों की भांति प्रलयकाल में शरीर के साथ ब्रह्म में प्रलीन हो जाता है।
'श्री मुरलीधर पाण्डेयः श्रीशंकरात्प्रागद्वैतवादः पृ० २८८
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