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तन्मतेनापि दुस्साध्यो ज्ञानकर्म समुच्चयः।।
(नै०सि० १/६८)
ब्रह्मदत्त कर्म और ज्ञान के समुच्चय के पक्षपाती प्रतीत होते है परन्तु ब्रह्मदत्त आत्मज्ञान में उपासना विधि का श्रेय मानते है ।
सकृत प्रवृत्तया मृदनाति क्रियाकरकरुपभृत। अज्ञानमागम ज्ञानं सांगत्य नास्त्यतोऽनयोः । ।
( नै०सि० १/६७)
आचार्य श्री ब्रह्मदत्त के समान आर्यवेदान्ताचार्य आश्मरथ्य भी ब्रह्म से जीव का जन्म मानते है किन्तु इन दोनों में इतना भेद है कि आश्मरथ्य भेदाभेदवादी है और ब्रह्मदत्त अद्वैतवादी है।
जीव- ब्रह्मदत्त के मत में जीव अनित्य है; क्योकि उसका जन्म होता है जीव ब्रह्म से उत्पन्न होता है, और ब्रह्म में लीन हो जाता है जैसा कि 'तत्त्व मुक्ताकलाप' में कहा गया है
'एक ब्रह्म ही नित्य है और उससे इतर सब जन्म आदि लेने वाले है इसलिये जीव भी अचित के समान जन्मवान है।' (त० मु० क० २ / १६) आचार्य ब्रह्मदत्त के मत में जीवात्मा अपनी कार्यावस्था में ब्रह्म से भिन्न माना जा सकता है। वह अपने कारण रूप में होने पर ब्रह्म से अभिन्न है । इस प्रकार आचार्य के मत से ब्रह्म और जीव का भेदा–भेद स्वरुप प्रमाणित होता है । पूर्वकाल में जीव जन्मवादी सम्प्रदाय भी था इसका संकेत उपनिषद्, पुराण तथा महाकवियों के बचनों में उपलब्ध है । यथा
(१) 'तोयेन जीवान् व्यससर्ज भूम्याम् ।' (महानारायणोपनिषदि १-४ ) (२) प्रकृतिर्या मयाख्यात व्यक्ताव्यक्त स्वरुपिणी ।
पुरुषश्चाप्युभावेतौ लीयते परमात्मनि ।। (विष्णुपुराणे ६/४/१२६)
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