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नारायण शुक्ल ने 'भावप्रदीप' नामक अपनी वाक्यपदीय की टीका में परावाक् को ही ब्रह्म कहा है।
उपर्युक्त वाक्य से ही यह प्रतीत होता है कि ब्रह्म ही अविद्या के कारण नाना रुपों में भासित होता है। यही दार्शनिक दृष्टि अद्वैत वेदान्त की भी है। तत्वदीपिकाकार ने भर्तृहरि को स्पष्ट रूप से अद्वैतवादी स्वीकार किया है। आचार्य भर्तृमित्र
जयन्त भट्ट की 'न्याय मञ्जरी' शब्द के नित्यानित्य विवेचन प्रसंग में दो स्थलों (पृ० २१३, २२६) पर भर्तृमित्र का उल्लेख हुआ है। यामुनाचार्य के 'सिद्धित्रय' में भर्तृमित्र का उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त कुमारिल भट्ट ने अपने 'श्लोकवार्तिक' में (१/१/१०,१३०-१३१) में भी भर्तृमित्र की चर्चा की है। वैष्णव ग्रन्थों में उद्धृत भर्तृमित्र तथा मीमांसा शास्त्र के ग्रन्थों में वर्णित भर्तृमित्र एक ही है यह कहना निश्चित रूप से कठिन है।
आचार्य भर्तृमित्र की कोई रचना प्राप्त नही होती है, किन्तु भट्ट उम्बेक' ने माना भर्तृमित्र विरचित 'तत्वशुद्धि' नामक प्रकरण ग्रन्थ मीमांसा पर था। इससे यह सिद्ध होता है कि भट्ट उम्बेक के समय यह ग्रन्थ उपलब्ध रहा होगा। यह आचार्य, कुमारिल भट्ट
और शङ्कर के पूर्ववर्ती थे। ब्रमानन्दी, टङ्क
' शब्द ब्रम्ह वादिनस्तु परावाक। एवं ब्रम्हतदेव अविद्यया नानारुपं भासते इति प्राहुः । (भावप्रदीप, वाक्यपदीय, ब्रम्हकाण्ड,श्लोक १३२) 2 यामुनाचार्य- यतीन्द्रमत दीपिका - पृ०४-५ वाराणसी संस्करण। 3 प्रायेणैव हि मीमांसा लोके लोकायतीकृता। तामस्तिकपथे कर्तुमयां यत्नः कृतो मया ।। मीमांसाप्रथम सूत्र का श्लोक वा० १/१/१०) 4 भट्ट उम्बेक - 'श्लो० वा०' की प्रारम्भिक दसवें श्लोक की व्याख्या।
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