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उन्होंने व्याकरण प्रधान ग्रन्थ वाक्यपदीय में (वाक्यं च पदं वाक्यपदे ते अधिकृत्य कृतेऽस्मिन ग्रन्थे) प्रथमकाण्ड की ब्रह्मकाण्ड यह सामाख्या की है। प्रथम ब्रह्मकाण्ड में सम्पूर्ण ग्रन्थ का प्रस्तावना भूत मूलतत्त्व निरुपित किया है तथा वाक्यकाण्ड में ही स्फोट निरूपण परक एवं ब्रह्मनिरुपणपरक प्रथमकाण्ड का अतभाव किया गया है। इस ग्रन्थ की पहली कारिका में ही ब्रह्म, जगत तथा ब्रह्म के जगत रूप में अवभासित होने में कारण और विवर्त अविद्याजन्य मिथ्यारूप निर्दिष्ट किये गये हैं। यथा
"अनादि निधनं ब्रह्म शब्दतत्त्वं यदक्षरम् । विवर्ततेऽर्थ भावेन प्रक्रिया जगतो यतः ।।" (वा० प० १ का १ का०)
अर्थात् ब्रह्म आदि और अन्त से रहित, अविनाशी और शब्द तत्त्व है। वह अर्थ भाव से विवर्तित रुप में भासित होता है। वाक्य पदीय का यह सिद्धान्त शब्दब्रह्मवाद अथवा शब्दाद्वैतवाद है। शब्दतत्त्व अक्षरब्रह्म है। समस्त सृष्टि शब्दतत्त्व से उत्पन्न हुई है, शब्द स्थित है और अन्ततः शब्दतत्त्व में लीन हो जाती है। जगत की यह प्रक्रिया शब्द तत्त्व या अक्षर ब्रह्म का विवर्त है। इस प्रकार भर्तृहरि विर्वतवादी थे। किन्तु काश्मीर शैवमत के आचार्यों ने उनके विर्वतवाद को परिणाम वाद बतलाया है।
इस प्रकार भर्तृहरि ने शब्दाद्वैतवाद का प्रतिपादन विवर्तवाद और मायावाद के आधार पर किया है। उनके पूर्व 'विवर्त' शब्द का प्रयोग किसी भी दार्शनिक ने नही किया था। भर्तृहरि ही विवर्तवाद के जनक है।
शब्दः वाक्
इस नीति में शब्द वाणी है और इस प्रकार वाक् तत्त्व है। शब्द दो प्रकार का है। एक शब्दों का निमित्त रूप (स्फोट) और दूसरा अर्थ की प्रतीति कराने वाला बैखारी रुप। जैसा कि कहा गया है -
क- अथाय मान्तरो ज्ञाता सूक्ष्मवागात्मना स्थिरः । व्यक्तये स्वस्य रुपस्य शब्दत्वेन विवर्तते।। वा०प०१/११२ ख-या० प०१/१२६
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