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है। इसी लिए सहावस्थिति का आधार ही नहीं रहता हैं। कारण यह है कि परमात्मा के समान जीवात्मा भी नित्य है इसी तथ्य को कठोपनिषद में भी कहा गया है- "ना जायते मृयते ... (कठो० १।२।१८)
इसी अर्थ को (छान्दो० ६।११।३) में भी कहा गया है कि जीवात्मा के निकल जाने पर यह देह मरा हुआ कहा जाता है। जीवत्मा कभी मरता नहीं मोक्ष की अवस्था में जीवात्मा ब्रह्म में लीन हो जाता है इसे जीवात्मा का स्वरूप से मरना कहा जायेगा। 'लय' का अर्थ है अपने स्वरूप को छोड़कर रूपान्तर की प्राप्ति। किन्तु जीवात्मा के विषय में ऐसा मानना शास्त्र विरुद्ध है। क्योंकि जीवात्मा तथा परमात्मा की एक साथ सह अवस्थिति निश्चित है। अतेव ये दोनों तत्त्व निहित है, और आत्मतत्व दोनों में समान है।
काशकृत्सन के उक्त मत का उल्लेख शङ्कराचार्य ने अपने भाष्य में इसप्रकार किया है- 'काशकृत्सनस्याचार्यस्याविकृतः परमेश्वरो जीवो नान्य इतिमतम्' (ब्र० सू० शां० भा० १।४।२२) इस प्रकार काशकृत्स्न जीव को अविद्याकल्पित मानते हैं। अर्थात अविकृत परमेश्वर ही जीव है, अन्य कोई नहीं।
इसप्रकार आचार्य शङ्कर ने काशकृत्स्न के मत को श्रुति के अनुकूल कहा है। और काशकृत्स्न का मत अद्वैतवाद के समान है। ६. जैमिनि
ब्रह्मसूत्र में आचार्य जैमिनि का उल्लेख ग्यारह बार हुआ है। जो सब आचार्यों की अपेक्षा अधिक है। कदाचित् गुरु ने शिष्य के प्रति वात्सल्य प्रकट करने एवं उसके
1 किलेदं म्रियते न जीवो म्रियते (छा० उ०६।११३) 1 तत्रकाशकृत्स्नीयं मतं श्रुत्यनुसारीत गम्यते। (ब्र० सू० शा० भा०१।४।२२)
ब्र० सू० क. साक्षादप्य विरोधं जैमिनि। ब्र० सू० १।२२८ ख. सम्पतेरिति जैमिनिस्तथा हि दर्शयति ब्र० सू० १।२।३१ ग. मध्वादिष्वसंभवादनधिकरं जैमिनिः । ब्र० सू० १।३३१
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