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सूत्रकार ने आर्ष परम्परा के इन आचार्यों को जिन प्रसंगो में प्रस्तुत किये हैं वहाँ अपने विचारों का संकेत स्वयं 'वादरायण' नाम से किया है। कुछ स्थल पर तो पूर्वप्राचीन आचार्यों के विचार से सहमति की भवाना से अपना कोई पृथक मत नहीं दिया है। ब्रह्मसूत्र में ऐसे नौ स्थान है जहां वादरायण ने अपना नामोल्लेख किया है। उपरोक्त आचार्यों में जैमिनि, ब्रह्मसूत्रकार का समकालिक आचार्य है और यह बात दोनों आचार्यों की रचनाओं से स्पष्ट होता है। जैमिनि ने अपनें मीमांसा सूत्र नामक ग्रन्थ में बादरायण का उल्लेख किया है। और वादरायण ने अपने ब्रह्मसूत्र में जैमिनि का नाम उल्लिखित किया है।
मीमांसा ग्रन्थ के पांचवे सूत्र में वादरायण नाम से उस अर्थ को निर्दिष्ट किया है जो वेदान्त के प्रारम्भिक तीसरे सूत्र में प्रतिपादित है। इसी प्रकार वेदान्त ३।३।४६ के सूत्र में मीमांसा सूत्र (३/३/४) के प्रतिपादित अर्थ का 'अतिदेश 'किया गया ज्ञात होता है। परम्परा के अनुसार जैमिनि को कृष्णद्वैपायन बेदव्यास का शिष्य कहा गया है, जो मीमांसा ग्रन्थ के प्रणेता थे। वेदव्यास का अपरनाम बादरायण था जो महाभारत युद्ध के पूर्वापरकाल में विद्यमान रहा।
अचार्य बलदेव उपाध्याय ने लिखा है- शङ्कर के पूर्व वेदान्त की तीन परंपरायें दृष्टिगत होती है एक अद्वैतवेदान्त की परंपरा है, दूसरी भेदाभेदवाद की परंपरा है। तीसरी भेदवाद की परम्परा है। अद्वैतवाद की परम्परा का उल्लेख वेदान्तेत्तर दर्शनों के इतिहास में मिलता है। जैन दार्शनिक समन्तभद्र जो शङ्कर के पूर्ववर्ती को अद्वैतावाद का उल्लेख 'आप्त मीमांसा' में करते हैं
"अद्वैतकान्त पक्ष दृष्टो भेदो विरुध्यते । कारकाणां क्रिययोश्च नैकं स्वस्मात प्रजायते"।।
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