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६. जाग्रत स्वप्न- ये वो जीव हैं जो बन्धन से मुक्त हैं इस प्रकार के जीवों को शास्त्रज्ञान से अथवा सत्संग से ज्ञात हो जाता है कि यह जगत् स्वप्न है। ये परमपद या परमार्थ प्राप्ति में लीन रहते हैं ।
७. क्षीण जाग्रत - ये वो जीव होते हैं जो तुरीयावस्था को प्राप्त कर लेते हैं उन्हें आत्मबोध ये ब्रह्मज्ञान प्राप्त हो जाता है, वे पूर्णतया जीवनमुक्त हैं।
इस प्रकार जाग्रत स्वप्न स्वप्न और क्षीण, जाग्रत से दो प्रकार के जीवन मुक्ति की अवस्था के जीव हैं। योगवासिष्ठ के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि 'दृष्टि सृष्टिवाद' ही मुख्य सिद्धान्त है। योगवासिष्ठ के कल्पनावाद और बौद्धविज्ञानवाद में बहुत कुछ साम्य परिलक्षित होता है। इस प्रकार योगवासिष्ठ का जगत एवं मुक्ति सम्बन्धी सिद्धान्त भी अद्वैतवाद का पोषक है।
बन्धन और मोक्ष
जगत् के पदार्थों के प्रति वासना के प्रबल होने को बन्धन कहा गया है। इस प्रकार वासना ही बन्धन का मुख्य कारण है। जब जीव अपनें वास्तविक स्वरूप को भूल जाता है तब वह बन्धन में पड़ जाता है। इस बन्धन का कारण अज्ञान है। दृश्य सद्भाव ही बन्धन है। दृश्य का अभाव मोक्ष है । बन्धन और मोक्ष दोनों का कारण मन है। जब मन इन्द्रियादि विषयों का ताना-बाना तानता है तब वह बन्ध है । पुनः जब वह विचार पूर्वक सामान्य का अनुसन्धान करता है तो मोक्ष है । 'मोक्ष एव मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयोः’। यह वर्तमान जीवन में भी संभव है। क्योंकि यह ज्ञान की अवस्था है । यह जीवनमुक्ति की अवस्था में होता है ।
योगवासिष्ठ में सदेह और विदेह नाम से दो मुक्तियों का वर्णन है सदेह मुक्ति | को जीवन मुक्ति कहा गया है। शरीर त्यागने पर प्राप्त होने वाली दशा को विदेह
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