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स्वप्न या मृगतृष्णा है- 'मनसा कल्पितं सर्व देहादिभुवनत्रयम' (योगवसिष्ठ ४।४५१५) परमार्थतः एक मात्र अद्वितीय ब्रह्म ही सत् है।
जीव
___जो जीवित और चेतन युक्त है वह जीव और अनादि और अनन्त है। इस जीव की स्वाभाविक उत्तपत्ति ब्रह्म से हुई है। जीवों की संख्या असंख्य है। अनाख्य सत् से चित् का विभ्रम पैदा होता है, चित् से जीवत्त्व का, जीवत्त्व से अहंकार का, अहंकार से चित्त का, चित्त से इन्द्रियादि का और इन्द्रियादि से देहादि का विभ्रम पैदा होता है। सत् स्वरूप आत्मा के अतिरिक्त और सभी कुछ भ्रम है, मिथ्या है। जीव का सार आत्मा का स्पन्द है। स्पन्द के कारण ही जीवत्त्व की प्रतीति होती है। जीव को ही मन, चित्त या बुद्धि कहते है।
"जीवित्युच्यते लोके मन इत्यपि कथ्यते।
चित्तमित्युच्यते सैव बुद्धिरित्युच्यते तथा" || योगवासिष्ठ ३।६६।३४ जीव सात प्रकार के होते हैं१. स्वप्न जाग्रत- जो स्वप्न देखते हैं उनको यह जगत स्वप्न लगता है। वह स्वयं
अपनें को स्वप्न-पुरुष समझते हैं। २. संकल्प जाग्रत- जो अनिद्रालु तथा संकल्पपरायण हैं वे संकल्प जाग्रत जीव हैं। ३. केवल जाग्रत जीव- कल्पान्तर के जाग्रत संस्कार से जिन जीवों को स्वप्न नहीं
दीखता वे केवल जाग्रत हैं। वे स्वप्न हेतु को विनष्ट किये हुये हैं। ४. चिर जाग्रत- जो जीव जन्म जन्मान्तरों से उत्तरोत्तर जाग्रत अवस्था को प्राप्त कर
रहे हैं वह चिर जाग्रत है। ५. घनजाग्रत- घन जाग्रत वे जीव होते हैं जो जाग्रत अवस्था में अपनें दुष्कर्म से
जड़भूत हो गये हैं। ये पाँचो प्रकार के जीव बद्धजीव हैं।
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