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योगवासिष्ठसार, रामानन्दतीर्थकृत वासिष्ठसार, आत्मसुखकृत चन्द्रिका, मुमुक्षुदेवकृत संसारतरिणी आदि। दार्शनिक सिद्धान्त
१. परमसत् का स्वरूप
योगवासिष्ठ सत् को एक और अद्वितीय मानता है। सभी की आत्मा होने के कारण वह सर्वात्मा सर्वव्यापी सत् है। वह स्वतः स्थित है। अर्थात् वह निरपेक्ष सत् है सभी उसका अनुभव करते हैं
दिक्कालाद्यनवच्छिन्नः परमात्मास्ति केवलः । सर्वात्मत्वात्स सर्वात्मा सर्वानुभवतः स्वतः । ।(योगवसिष्ठ ३।८।८१)
आत्मा अवाङ्गमनसगोचर है। इसके विभिन्न नाम है, यथा- आत्मा, पुरुष, ब्रह्म, विज्ञान, शून्य आदि सब कल्पित हैं। अर्थात् वह अनाम है। योगवासिष्ठ में परमब्रह्म को जगत की उत्पत्ति और लय का कारण बतलाया गया है।
यतः सर्वाणि भूतानि प्रतिभान्ति स्थितानि च।
यत्रैवोपशमं यान्ति तस्मै सत्यात्मने नमः ।। (योग वासिष्ठ १/१/१) परमशुभ या निःश्रेयस होने के कारण ब्रह्मको शिव कहा जाता है। चित् ही शिव है। उसकी शक्ति ही स्पन्द है। वह सत्, चित्, आनन्द स्वरूप है। उसका ज्ञान केवल अनुभव जन्य है, ब्रह्म का वर्णन संभव नही है, वह न चेतन है और न जड़ है। उसे न तो सत् कहा जा सकता है और न जड़ है। उसे न तो सत् कहा जा सकता है और न असत् 'न चेतनो न च जड़ो न चैवासन्नसन्मयः'। एन० के० देवराज ने अपने ग्रन्थ भारतीय दर्शन में आत्मा से सम्बन्धित योगवासिष्ठ का उदाहरण दिया है कि- "आत्मा ही आत्मा का प्रिय मित्र है और आत्मा ही आत्मा का वैरी है। यदि आत्मा ही आत्मा की
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