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समीचीन है। इस प्रकार विद्वानों का एक बड़ा वर्ग इसे शङ्कराचार्य के पूर्व का ग्रन्थ मानता हैं। योगवासिष्ठ के काल निर्धारण के विषय में जो कठिनाई है। उसका मुख्य कारण है कि उसके कई संस्करण निकले थे। जो सबसे प्राचीन संस्करण है उसका नाम है 'मोक्षोपाय' है-मोक्षोपायाभिधानेयं संहिता सारसंमिता 'त्रिंशदेवेव च सहस्राणि ज्ञाता निर्वाणदायिनी' ।। (यो० वाशिष्ठ २१७ १६)
योगवासिष्ठ का रचनाकाल संदिग्ध तो है ही। लेखक भी दोलायमान है। वस्तुतः ज्ञानालोक की कसौटी पर इसको देखा जाय तो यही कहना पड़ेगा कि इसकी विषय वस्तु शाश्वत सनातन है और नवपरिधान काल और व्यक्तिविशेष की देन है।' योगवाशिष्ठ को कई अन्य नामो से भी जाना जाता है यथा- वासिष्ठ, वासिष्ठ रामायण, योगवासिष्ठ रामायण, महारामायण, आर्षरामायण, ज्ञानवाशिष्ठ और मोक्षोपाय। इसको माहारामायण कहने का कारण है कि यह रामायण से आकार में यह बहुत बड़ा है। यह सिद्धावस्था का ग्रन्थ है। स्वामी रामतीर्थ ने इसे वेदान्त के सभी ग्रन्थों का शिरोमणि कहा है।
आचार्य वलदेव उपाध्याय ने लिखा है- "इस प्रकार ग्रन्थ के उपक्रम और उपसंहार के द्वारा सिद्ध होता है कि इसके लेखक वाल्मीकि हैं। किन्तु यहां वाल्मीकि रामायणकार वाल्मीकि नहीं हैं। वे कालिदास के पूर्ववर्ती हैं और योगवासिष्ठकार कालिदास के उत्तरवर्ती हैं। फिर चाहे योगवासिष्ठ के जो भी लेखक हों इसको वासिष्ठ का दर्शन माना जाता है। अद्वैत वेदान्त की गुरु परम्परा में वसिष्ठ का नाम ब्रह्मसूत्रकार व्यास के पहले आता है। योगवासिष्ठ के विचारों को उन्हीं पर आरोपित
उ संस्कृत वासस्कृत सक्या जलद तिहास (दशामखण्ड), प्रय
'संस्कृत वाड्मय का बृहद् इतिहास (दशमखण्ड). प्रधान संपादक आचार्य वलदेव उपाध्याय- पृ०- ५५७, प्रकाशनउत्तर-प्रदेश संस्कृत संस्थान लखनऊ।
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