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३. उस समय अन्धकार से व्याप्त अव्यक्त प्रकृति थी और यह सब अज्ञेय अवस्था में
जल के समान एकाकार था जो तुच्छ था (ब्रह्म के सम्मुख प्रकृति तुच्छ है) वह परमात्मा के तप से एक अर्थात व्यक्त सी होने लगी। इसी उपर्युक्त बात की व्याख्या महर्षि दयानन्द ने भी इसी प्रकार से ही की है। ४- वस्तुतः कौन जानता है और कौन कह सकता है, कहां से निर्माण हुआ और कहां
से विविध प्रकार की सृष्टि हुई है, देव भी वाद में ही बने हैं अब कौन यह कह
सकता है कि यह सृष्टि कहां से निर्मित हुई। ५- जिससे यह विविध प्रकार की सृष्टि उद्भूत हुई है वही इसको धारण करता है।
यदि न करे तो सृष्टि विनष्ट हो जाय। जो परम व्योम है इसका वह अध्यक्ष है। हे मित्र! उसको जान, यदि उसको न जानेगा तो महती हानि होगी।
कुछ आधुनिक विद्वान जो शङ्कर के अद्वैतवाद से प्रभावित हैं वह आचार्य शङ्कर के अद्वैतवाद सिद्धान्त का मूल इसी सूक्त में ढूंढने का प्रयास करते हैं- किन्तु यहां यह विचारणीय है कि सर्वप्रथम मंत्र में सत् और असत् दोनों का ही उस अवस्था में होने को खण्डन किया गया है। यदि इस मंत्र में केवल यह इतना ही स्पष्ट रूप से कहा गया होता कि सृष्टि के पूर्व केवल सत् ही था और कुछ भी नहीं था तब तो आचार्य शङ्कर के सिद्धान्त का प्रतिपादन समुचित जान पड़ता। क्योंकि आचार्य शङ्कर का भी यह मन्तव्य है कि सत् का कभी वाध नहीं होता है यह त्रिकालाबाधित सत् होता है। किन्तु वेद न तो सत् को मानता है और न ही असत् को ही मानता है। इससे यह तात्पर्यतः अर्थ निकलता है कि 'सत्' का अर्थ यह कार्यरूप जगत् नहीं था। और असत् का अर्थ है अभाव । अर्थात् पूर्णतः अभाव भी नहीं था अपितु कारण प्रकृति
1 तम आसीतमसा गूढ़तमग्रेअप्रकेतः सलिलं सर्वमाइदम। तुच्छयेनाम्बपिहितं.. जार्यतकम्।। (ऋ० १०/१२६/३) 2 को अद्धावेद क इह प्रवोचत्कुत अजाता कुत इयं विसृष्टि। अर्वाग्देव स्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आ बभूव।। (ऋ० १०/१२६/६) इयं विसृष्टि आबभूव यदि वा दधेवाम । (ऋ० १०/१२६/७)
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