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यह भी कहा गया है कि ये वेद परमात्मा के निःश्वास से प्रभूत है तथा उसी परमात्मा के द्वारा प्रकाशित ज्ञान है। इस प्रकार उपनिषदों का अध्ययन करने के बाद यह स्पष्ट होता है कि कुछ मंत्रों को छोड़कर अन्यत्र वेदों के मंत्रों को ज्यों का त्यों उपनिषदों में ग्रहण किया गया है । ब्राह्मण वेद के स्वाध्याय द्वारा उसी परमात्मा को जानने की इच्छा करते हैं। इस प्रकार उपनिषदें वेदों के विरूद्ध नहीं अपितु वेदों को प्रमाणरूप में प्रस्तुत करती है।
वेद में प्रलयावस्था की स्थिति में प्रकृति का नि
सृष्टि की रचना होने से पूर्व प्रकृति प्रलयकाल में किस स्थिति में थी, उसका क्या आकार था, इस सृष्टि की रचना किसने किया या यह प्रकृति थी भी या नहीं थी ? आदि प्रश्नों का उत्तर वेदों में गंभीरता से दिया गया है। इस दार्शनिक समस्या का समाधान सबसे ज्यादा ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में वर्णित है। नासदीय सूक्त के विषय में मैक्समूलर (पश्चिमी विद्वान) का विचार है कि इस सूक्त को ईश्वर ने ऋषियों के लिये ही अवतरित किया है। जैसा कि इस सूक्त के कुछ मंत्रों के विवेचन से प्रतीत होता है
१– उस समय (प्रलयकाल) में न असत् था न सत् था और न ही परमाणुओं से भरा अन्तरिक्ष भी था, उस समय कहां क्या आच्छादित था? प्रकृति किसके आश्रय में थी, क्या उस समय बहुत अधिक गंभीर जल (बल) था । '
२- तब उस समय न मृत्यु थी तथा न किसी प्रकार का जीवन था, रात्रि और दिवस
भी नहीं था, उस समय वह परमात्मा अपनी शक्ति से स्वधा - प्रकृति के साथ बना
किसी प्राणवायु के प्रणयन कर रहा था उससे परे श्रेष्ठ कुछ भी नहीं था '
1 तथा तमेतं वेदांनुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति ।
(बृहदारण्यक ४/४/२२)
2 नासदासीन्मो सदासीत्तदानीं द्रजोनो व्योमाड़परोयत । किमारीव कुहकस्य शर्मन्नम्भ किमसीदगहनं गंभीरम् ।। (ऋ० १०/१२६/१)
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न मृत्युरासीदमृतं न तर्हिनरात्या अन आसीत् प्रकेटः । ऋ० (१०/१२६/२) ।
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