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ज्ञानकाण्ड में आध्यात्मिक चिन्तन प्रधानरूप से वर्णित है और कर्मकाण्ड में उपासनाओं का विचार निहित है। कर्मकाण्ड में यज्ञ की महत्ता पर बल दिया गया है इसमें अधिकार भेद का भी वर्णन निहित है क्योंकि सभी काम सभी को करने का अधिकार नहीं है और यदि अधिकार के बिना कोई काम किया जाय तो विघ्न उत्पन्न होता है और प्रयत्न सफल नहीं होता है। वेद में तपस्याएं, स्तुतियां पवित्र विचार और अन्तःकरण की शुद्धि को परमतत्व की प्राप्ति के लिये अनिवार्य माना गया है।
वैदिक दर्शन का एक महत्वपूर्ण विद्धान्त. ऋत का नियम भी है। वैदिक मान्यता है कि जिस प्रकार मानवीय जगत में नैतिक व्यवस्था है उसी प्रकार भौतिक जगत में भी एक प्रकार की नैतिक व्यवस्था है उसी प्रकार भौतिक जगत में भी एक प्रकार की नैतिक व्यवस्था से सम्बन्धित मुख्य नियम को ही 'ऋत का नियम' कहा गया है।
वेद में 'ऋत्' का विचार अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं व्यापक है। 'ऋत' नैतिक नियम है। देवता ऋत् के नियम का स्वयं पालन करने वाले तथा अन्यों से कराने वाले होते हैं। 'ऋत्' का अर्थ है 'जगत की व्यवस्था'।
ऋत् के नियम को प्राकृत नियम (Natural Law) भी कहा गया है। सूर्य, चन्द्रमा, तारे, दिन-रात इसी नियम से संचालित होते हैं। ऋत का संचालक वरूण देवता को कहा गया है- "तस्य कर्ता वरूणस्य गोप्ता"। 'ऋत' के कारण ही स्वर्ग और नरक की वर्तमान स्थिति है। स्वर्ग और नरक के सम्बन्ध में अस्पष्ट विचार मिलते हैं। स्वर्ग के सुखों को पृथ्वी के सुखों से बढ़कर माना गया है- स्वर्ग प्राप्ति से अमरता की प्राप्ति होगी, नरक को अन्धकारमय कहा गया है वरूण पापियों को नरक में ढकेलता है और जीव अपने कर्मों के अनुसार ही स्वर्ग तथा नरक का भागीदार बनता हैं 'ऋत्' के नियम के कारण ही वर्तमान में स्वर्ग तथा नरक की स्थिति है। 'ऋत् के नियम' में कर्म सिद्धान्त का बीज भी अन्तर्भूत है। और कर्म सिद्धान्त की यह मूलभावना है कि जो
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