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वैदिक ऋषियों ने उस परमतत्व के लिये " तदेकम्" शब्द प्रयुक्त किया है ऐसा लिंगनिर्धारण करने में असमर्थ होने के कारण किया होगा, तथा उस मूलतत्व के लिये तत् तथा सत् शब्दों का प्रयोग किया है । वही इस जगत का मूलकारण है उसी से इस जड़ जगत की चेतन और अचेतन वस्तुओं की उत्पत्ति हुई है, वह एक है, अद्वैत है, अद्वितीय है, अग्नि, मातरिश्वा, यम आदि देवता उसी के भिन्न रूप को धारण करने वाले हैं, वह एक है, परन्तु कवि लोग उसे भिन्नर नाम से पुकारते हैं
‘इन्द्रंमित्र वरूणमग्निवाहुरथो दिव्यः स सुपर्णोगरुत्मान् एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति अग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः ।।' (ऋग्वेद १/१६४/४६)
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि देवताओं का वास्तविक सार एक ही है‘मद् देवानाम् सुरत्वमेकम्' । वेद में अनेकेश्वरवाद से हीनोथीज्म और फिर एकेश्वरवाद की ओर विकास हुआ है ।
वैदिक दार्शनिक विचारधारा में कर्म के सिद्धान्त को स्वीकार किया गया है। अनेक वैदिक मंत्र इस बात का अनुमोदन करते हैं कि शुभ कर्मों के द्वारा अमरत्व को प्राप्त किया जा सकता है। जन्म एवं पुनर्जन्म का कारण भी व्यक्ति के कर्म ही है क्योंकि व्यक्ति जैसा अच्छा या बुरा कर्म करता है उसी के अनुरूप शुभ या अशुभ फल प्राप्त करता है। ऋग्वेद के एक मंत्र के अनुसार पूर्व जन्म के दुष्ट कर्मों के परिणामस्वरूप व्यक्ति पाप कर्म की ओर उन्मुख होता है। (ऋग्वेद ७-८६ - ६) वैदिक मंत्रों में प्रारब्ध और संचित कर्मों का भी उल्लेख मिलता है । व्यक्ति को अपने पूर्व जन्मों के निम्न कर्मों को भोगने के लिये वृक्ष, लता, स्थावर तथा अन्य जीवों का जीवन भी भोगना पड़ सकता है। वेद के दो खण्ड हैं १ - ज्ञानकाण्ड, २ - कर्मकाण्ड
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