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मन आदि के साथ तादात्मय स्थापित कर लेना ही बन्धन है। शरीर की अनुभूतियों को आत्मा की अनुभूति मान लेना ही 'बन्धन' है । यद्यपि आत्मा नित्य, शुद्ध, चैतन्य, मुक्त तथा अविनाशी है। आत्मा का बन्धन नहीं होता है जीव अज्ञानता के कारण आत्मा को जान नहीं पाता है और ज्ञान के अभाव में बन्धनग्रस्त हो जाता है ।
अविद्या या अज्ञान का नष्ट हो जाना ही मोक्ष है । शङ्कर के मतानुसार आत्मा स्वभावतः मुक्त है। उसे 'बन्धन' की प्रतीति केवल अज्ञानता के कारण ही होती है । मोक्ष कोई नई चीज नहीं होती है। आचार्य ने 'मोक्ष' को 'प्राप्तस्य प्राप्तिः' कहा है। अर्थात् वास्तविक स्वरूप का ज्ञान ही मोक्ष है। मोक्ष प्राप्ति की व्याख्या वेदान्त दर्शन में एक उपमा से दी गयी है जिस प्रकार कोई रमणी अपने हार को गले में पहनकर भूल जाती है और इधर-उधर ढूढती है उसी प्रकार आत्मा मोक्ष के लिये सदा प्रयत्नशील रहती है। मोक्ष दो प्रकार की मानी गयी है।
(१) सदेह मुक्ति - जीवन मुक्ति की अवस्था होती है क्यों कि पूर्व कर्मों के संस्कार के
कारण ही शरीर विद्यमान रहता है । यथा- कुलाल चक्रवत ।
(२) विदेह मुक्ति - जब पूर्व कर्मों का संस्कार भी समाप्त हो जाता है तब देहपात हो जाता है यह विदेह मुक्ति है ।
मोक्ष प्राप्ति के उपायों में आचार्य शङ्कर ने 'साधनचतुष्टय' का उल्लेख किया है। 'साधनचतुष्टय' का विवरण निम्नलिखित है
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१. नित्यानित्यवस्तुविवेक नित्य, अनित्य का भेद जानना साधक को आवश्यक है २. इहामुत्रार्थफलभोगविराग साधक को लौकिक और पारलौकिक भोगों की
कामना को छोड़ देना चाहिये ।
३. शमदमादिसाधनसम्पत साधक को छः साधन अपनाना होता है
१. शम से आशय है मन को संयमित करना ।
२. दम से आशय है- इन्द्रियों को वश में करना ।
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