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के विषय में दोनों एक मत हैं क्यों कि दोनों ही ( मीमांसक, नैयायिक) अप्रामाण्य को परतः स्वीकार करते हैं ।
सी० डी० शर्मा ने भारतीय दर्शन में लिखा है कि "मीमांसक ज्ञान अप्रामाण्य को, नैयायिक के समान, परतः मानते हैं क्योंकि इसका अनुमान कारण-दोष के आधार पर या बाधक ज्ञान के आधार पर किया जाता है । किन्तु प्रामाण्य को परतः मानने पर उनकी घोर आपत्ति है और उन्होंने न्याय के परतः प्रामाण्य का प्रबल खण्डन किया है। मीमांसकों के अनुसार यदि ज्ञान में स्वतः प्रामाण्य न हो तो ज्ञान कभी भी प्रामाणिक नहीं हो सकता । नैयायिकों का यह कथन कि ज्ञान उत्पत्ति के समय तटस्थ होता है और उसमें प्रामाण्य या अप्रामाण्य बाद में आता है, सर्वथा असत्य है । तटस्थ ज्ञान अर्थात् प्रामाण्य और अप्रामाण्य से विरहित ज्ञान असंभव है क्यों कि ज्ञान सदा या तो प्रामाणिक होता है या अप्रामाणिक । यहाँ तीसरा विकल्प नहीं है ।"
आत्मा
प्रभाकर और कुमारिल दोनों के अनुसार आत्मा अनेक हैं। दोनों ही आत्मा को नित्य, सर्वगत, विभु, व्यापक द्रव्य मानते हैं जो ज्ञान का आश्रय है। मीमांसा दर्शन के अनुसार मनुष्य का यथार्थ रूप 'आत्मा' है। वही प्राणिमात्र का वास्तविक रूप है। आत्मा प्रत्येक शरीर में भिन्न भिन्न है। अपने पूर्व जन्मों के कर्मानुसार उसे नया जन्म मिलता है और उसे नये जन्म में पूर्वजन्म के कर्मों का फल भोग प्राप्त होता है। न्यायवैशेषिक के समान कुमारिल भी आत्मा को जड़ द्रव्य मानते हैं, जो ज्ञान नामक गुण का आश्रय है। ज्ञान आत्मा का आगन्तुक गुण है। मोक्ष के समय धर्म और अधर्म की समाप्ति के कारण शरीर- इन्द्रिय आदि सम्बन्ध का आत्यन्तिक विलय हो जाता है।
कुमारिल का मत नैय्यायिकों और प्रभाकर के मत से भिन्न है - कुमारिल ज्ञान को आत्मा का परिणाम या क्रिया मानते हैं जिसके द्वारा आत्मा पदार्थों को जानता है ।
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