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तंत्रवार्तिक और दुपटीका। पार्थसारथि मिश्र ने श्लोकवार्तिक पर 'न्यायरत्नाकर' टीका लिखी है उनका प्रकरण ग्रन्थ 'शास्त्र-दीपिका' प्रसिद्ध है। कुमारिल भट्ट के टीकाकारों में पार्थसारथि मिश्र, माधवाचार्य और खण्डदेव का नाम प्रसिद्ध है। पार्थसारथि मिश्र ने न्यायरत्नाकार, तर्करत्न, न्यायरत्नमाला आदिवार्तिक की रचना किये।
मुरारि मिश्र के विषय में कहा गया है- 'मुरारेस्तृतीयः पन्थाः' । अर्थात मीमांसा के तृतीय सम्प्रदाय का प्रवर्तक माना जाता है। इन्होंने भवनाथ के मत का खण्डन किया है। इनका समय १२वीं शताब्दी तक माना जाता है इनका कोई ग्रन्थ भी प्राप्त नहीं होता है। ज्ञानमीमांसा
प्रामाण्य विचार- अज्ञान तथा सत्यभूत पदार्थ के ज्ञान को प्रमा कहते हैं। प्रमा का करण प्रमाण है अर्थात् जिस ज्ञान से अज्ञात वस्तु का अनुभव हो तथा जो किसी दूसरे ज्ञान से बाधित न हो ओर दोष रहित हो उसे ही प्रमाण कहते हैं।
प्रमाण को लेकर प्रभाकर और कुमारिल अलग-अलग मत रखते हैं प्रभाकर मिश्र पाँच प्रमाणों को स्वीकार करते हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति। किन्तु कुमारिल छ: प्रमाण मानते हैं इन पाँचों के अतिरिक्त अनुपलब्धि नामक छठवां प्रमाण मानते हैं। मीमांसा दर्शन में वेद को अपौरुषेय मानते हुये नित्य निर्दोषता के आधार पर उसे प्रमाण माना गया है। प्रामाण्य के विषय में तीन मत प्रसिद्ध हैं१. प्रभाकर का मानना है कि सभी ज्ञान यथार्थ होते हैं भ्रम की सत्ता उन्हें स्वीकार नहीं
है। जिस स्थल पर विद्वान भ्रम की सत्ता स्वीकार करते हैं उस स्थल में प्रभाकर विशेष्य और विशेषण का पृथक-पृथक दो ज्ञान मानते हैं। और कहते हैं कि जिस दोष के कारण विशेष्य भूत पदार्थ की पहचान नहीं होती उसी के कारण उक्त दोनों ज्ञानों में तथा उनके विषयभूत विशेष्य और विशेषण में भेद ज्ञान नहीं होता इस प्रकार स्वरूपतः और विषयतः भिन्न रूप में अज्ञात उक्त ज्ञानद्वय से वह सब कार्य
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